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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1195
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
अ꣣पघ्न꣢न्तो꣣ अ꣡रा꣢व्णः꣣ प꣡व꣢मानाः स्व꣣र्दृ꣡शः꣢ । यो꣡ना꣢वृ꣣त꣡स्य꣢ सीदत ॥११९५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पघ्न꣡न्तः꣢ । अ꣣प । घ्न꣡न्तः꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯व्णः । अ । रा꣣व्णः । प꣡व꣢꣯मानाः । स्व꣣र्दृ꣡शः꣢ । स्वः꣣ । दृ꣡शः꣢꣯ । यो꣡नौ꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दत ॥११९५॥
स्वर रहित मन्त्र
अपघ्नन्तो अराव्णः पवमानाः स्वर्दृशः । योनावृतस्य सीदत ॥११९५॥
स्वर रहित पद पाठ
अपघ्नन्तः । अप । घ्नन्तः । अराव्णः । अ । राव्णः । पवमानाः । स्वर्दृशः । स्वः । दृशः । योनौ । ऋतस्य । सीदत ॥११९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1195
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
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विषय - ऋत के उत्पत्ति स्थान में
पदार्थ -
प्रभु पवमान की प्रार्थना का उत्तर देते हैं – १. (अराव्णः) = [ रा दाने] न देने की वृत्तियों को (अपघ्नन्तः) = सुदूर नष्ट करते हुए, अर्थात् सदा दान की वृत्ति को अपने में पनपाते हुए और इस प्रकार २. (पवमाना:) = अपने जीवनों को पवित्र करते हुए । दान से लोभादि मलों का नाश हो जाता है और मनुष्य का जीवन पवित्र हो उठता है। ३. पवित्र होकर (स्वर्दृश:) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु का दर्शन करनेवाले अथवा स्वर् - दीप्ति को देखनेवाले सदा प्रकाश में विचरनेवाले तुम (ऋतस्य योनौ) = ऋत के उत्पत्ति स्थान मुझमें (सीदत) = निवास करो । प्रभु सृष्टि के मूल नियम ‘ऋत' को जन्म देनेवाले हैं।
उस 'ऋत' के मूल प्रभु में स्थित होने के लिए ऋत का पालन आवश्यक है । यह क्या है ? मनुष्य के लिए १. दान देना २. अपने को पवित्र करना तथा ३. दीप्ति का दर्शन करना - ज्ञान प्राप्त करना ही ‘ऋत’ है। न देना, अपवित्रता व तमोगुण में विचारना ही अमृत है ।
भावार्थ -
हम दें, पवित्र बनें, दीप्ति को देखें और प्रभु में स्थित हों ।
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