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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1216
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
अ꣣या꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या꣣ य꣢या꣣ सू꣢र्य꣣म꣡रो꣢चयः । हि꣣न्वानो꣡ मानु꣢꣯षीर꣣पः꣢ ॥१२१६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣या꣢ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । य꣡या꣢꣯ । सू꣡र्य꣢꣯म् । अ꣡रो꣢꣯चयः । हि꣣न्वानः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षीः । अ꣣पः꣢ ॥१२१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अया पवस्व धारया यया सूर्यमरोचयः । हिन्वानो मानुषीरपः ॥१२१६॥
स्वर रहित पद पाठ
अया । पवस्व । धारया । यया । सूर्यम् । अरोचयः । हिन्वानः । मानुषीः । अपः ॥१२१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1216
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - मानव हितकारी कर्म
पदार्थ -
(सूरः) = सर्वत्र सरणशील [सरति] अथवा सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाला [षू प्रेरणे] (पवमानः) = पवित्र करनेवाला प्रभु (मनौ अधि) = मननशील पुरुष में (एतशम्) = चित्रित अश्व को, अर्थात् विविध क्रिया करनेवाले इन्द्रियरूप घोड़ों को (अयुक्त) = जोतता है । जोतता इसलिए है कि वह मननशील पुरुष (अन्तरिक्षेण यातवे) = मध्यमार्ग से [अन्तरा, क्षि] गति करनेवाला बने। दोनों सीमाओं [Extremes] के बीच में मध्यमार्ग 'अन्तरिक्ष' कहलाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य का लोक 'अन्तरिक्ष' लोक कहलाता है । 'हम सदा इस अन्तरिक्ष – मध्यमार्ग से चलनेवाले बनें।' इस उद्देश्य से हमारे शरीररूप रथ में उस प्रेरक पवित्रकर्त्ता प्रभु ने चित्रित अश्वों को - इन्द्रियरूप घोड़ों को जोता है । अति से बचते हुए और मध्यमार्ग से चलते हुए हम अपनी जीवनयात्रा को पूर्ण कर सकेंगे । निश्चय से ध्रुवतापूर्वक मध्यमार्ग से चलने के कारण यह 'निध्रुवि' है और ज्ञानी होने के कारण 'काश्यप ' है ।
भावार्थ -
हम अपनी जीवन-यात्रा में ध्रुवता से मध्यमार्ग से चलनेवाले बनें ।