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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 122
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡दि꣢न्द्रा꣣हं꣢꣫ यथा꣣ त्व꣡मीशी꣢꣯य꣣ व꣢स्व꣣ ए꣢क꣣ इ꣢त् । स्तो꣣ता꣢ मे꣣ गो꣡स꣢खा स्यात् ॥१२२॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । इ꣣न्द्र । अह꣢म् । य꣡था꣢꣯ । त्वम् । ई꣡शी꣢꣯य । व꣡स्वः꣢꣯ । ए꣡कः꣢ । इत् । स्तो꣣ता꣢ । मे꣣ । गो꣡सखा꣢꣯ । गो । स꣣खा । स्यात् ॥१२२॥


स्वर रहित मन्त्र

यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत् । स्तोता मे गोसखा स्यात् ॥१२२॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्वः । एकः । इत् । स्तोता । मे । गोसखा । गो । सखा । स्यात् ॥१२२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 122
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

गत मन्त्र में कहा गया था कि इन्द्र बनने के लिए यज्ञ की वृत्ति का होना आवश्यक है और यज्ञ की वृत्ति के लिए ज्ञान प्राप्ति अनिवार्य है। ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक इस ज्ञान प्राप्ति के लिए अपनी ओर से कोई कसर उठा नहीं रखता, परन्तु जब पूर्ण प्रयत्न के पश्चात् भी वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं होता तो प्रभु को इस रूप में उपालम्भ देता है कि

(यत्) = यदि (इन्द्र) = सब ऐश्वर्यों के स्वामी प्रभो! (अहम्) = मैं (यथा त्वम्) = आपकी भाँति (वस्वः) = ज्ञानादि सम्पूर्ण उत्तम वसुओं- रत्नों का (ईशीय) = ईश्वर होता तो (मे स्तोता) = मेरा स्तुति करनेवाला तो (गोसखा) = खूब ज्ञानी (स्यात्) हो जाता। हे प्रभो ! मुझे ज्ञानरूप धन देने के लिए आपने किसी दूसरे साथी व साझीदार से परामर्श थोड़े ही करना है! आप इन सब वस्तुओं के (एकः इत्) = अकेले ही, अद्वितीय ईश्वर हैं। मैं कब से आपकी स्तुति में लगा हूँ। कोरी स्तुति में ही नहीं पूर्ण प्रयत्न करता हुआ मैं आपकी कृपा का अधिकारी बनने के प्रयत्न में हूँ। 'हे प्रभो! आप कृपा करेंगे और अवश्य करेंगे' ऐसा मेरा विश्वास है। मेरा स्तोता तो, यदि मैं आप की भाँति ऐश्वर्यशाली होता, अब तक अभीष्ट ज्ञान को अवश्य प्राप्त कर चुकता । आपका स्तोता होता हुआ मैं उस ज्ञान को क्योंकर न प्राप्त करूँगा? करूँगा और उस ज्ञान को प्राप्त करने पर मेरी ज्ञानेन्द्रियों [गौवों] और कर्मेन्द्रियों [अश्वों] से उत्तम वृत्तियों का ही प्रवाह बहेगा और इस प्रकार मैं इस मन्त्र का ऋषि ‘गोषुक्ती व अश्वसूक्ती' बनूँगा। 

भावार्थ -

प्रभु के स्तोता का कर्तव्य है कि पूर्ण पुरुषार्थ करके प्रभुकृपा से ज्ञान प्राप्त करे।

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