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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1260
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ए꣣ष꣢ दे꣣वो꣡ वि꣢प꣣न्यु꣢भिः꣣ प꣡व꣢मान ऋता꣣यु꣡भिः꣢ । ह꣢रि꣣र्वा꣡जा꣢य मृज्यते ॥१२६०॥
स्वर सहित पद पाठए꣡षः꣢ । दे꣣वः꣢ । वि꣣पन्यु꣡भिः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । ऋ꣣तायु꣡भिः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । वा꣡जा꣢꣯य । मृ꣣ज्यते ॥१२६०॥
स्वर रहित मन्त्र
एष देवो विपन्युभिः पवमान ऋतायुभिः । हरिर्वाजाय मृज्यते ॥१२६०॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । देवः । विपन्युभिः । पवमानः । ऋतायुभिः । हरिः । वाजाय । मृज्यते ॥१२६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1260
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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विषय - आत्म-शोधक कौन ?
पदार्थ -
(एषः) = यह देव—अपने अन्दर दिव्यता बढ़ानेवाला, (पवमानः) = अपने को पवित्र बनाने के = स्वभाववाला, (हरि:) = परन्तु इन्द्रियों के द्वारा निरन्तर विषयों में हरण किया जानेवाला आत्मा (वाजाय) = शक्ति व ज्ञान-प्राप्ति के लिए (मृज्यते) = शुद्ध किया जाता है। किनसे १. (विपन्युभिः) = विशेषरूप से उस प्रभु की स्तुति करनेवालों से तथा २. (ऋतायुभिः) = ऋत को चाहनेवालों से ।
आत्मा ‘देव' है—चित् होने से ज्ञानमय है, यह पवमान–पवित्र है, परन्तु प्रबल इन्द्रियसमूह इसे विषयों में हर ले जाता है तो यह मलिन-सा हो जाता है । जब जीव यह चाहता है कि उसे शक्ति व ज्ञान प्राप्त हो, अर्थात् उसका शरीर सशक्त हो तथा उसका मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो तब वह अपना शोधन करता है – विषयपङ्क से अपने को निकालने का प्रयत्न करता है । विषयपङ्क से निकलने के उपाय यही हैं कि १. ‘विपन्यु’ बने= प्रभु का विशेषरूप से स्तोता हो तथा २. ऋतायु-सत्य व नियमितता को अपने जीवन में लाने के लिए यत्नशील हो ।
भावार्थ -
विपन्यु व ऋतायु ही आत्मशुद्धि कर पाते हैं।
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