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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1290
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ए꣣ष꣢ शु꣣꣬ष्म्य꣢꣯सिष्यदद꣣न्त꣡रि꣢क्षे꣣ वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ । पु꣣ना꣢꣫न इन्दु꣣रि꣢न्द्र꣣मा꣡ ॥१२९०॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣣सिष्यदत् । अन्त꣡रि꣢क्षे । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ ॥१२९०॥
स्वर रहित मन्त्र
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥१२९०॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । शुष्मी । असिष्यदत् । अन्तरिक्षे । वृषा । हरिः । पुनानः । इन्दुः । इन्द्रम् । आ ॥१२९०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1290
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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विषय - हृदय में प्रभु का प्रवाह
पदार्थ -
(एषः) = यह नृमेध १. (शुष्मी) = शत्रुओं का शोषण कर देनेवाले बलवाला होता है २. (वृषा) = यह अद्भुत शक्तिवाला बनता है ३. (हरिः) = शक्ति का प्रयोग आर्तों की आर्ति के हरण में करता है, अतः हरि कहलाता है ४. (पुनान:) = अपने जीवन को पवित्र बनाये रखता है। अभिमानवश बल का प्रयोग औरों को पीड़ित करने में करने से मानवजीवन अपवित्र हो जाता है । ५. (इन्द्रः) = यह नृमेध शक्ति व पवित्रता आदि परमैश्वर्यों को प्राप्त करता है । ६. और ऐसा बनकर (अन्तरिक्षे) = अपने हृदयाकाश में (इन्द्रम्) = उस सर्वशत्रुविनाशक परमैश्वर्य के स्वामी प्रभु को (आ) = सर्वथा (असिष्यदत्) = प्रस्तुत करता है। इस नृमेध के हृदय में प्रभु-स्तोत्र प्रवाहित होते हैं । वास्तव में हृदय में बहनेवाला यह प्रभुस्तुति का प्रवाह ही नृमेध की 'शक्ति, ज्ञान व पवित्रता' का रहस्य है । इसका शरीर शक्तिशाली है, इसका मस्तिष्क ज्ञानाग्नि से दीप्त है और इसका हृदय पवित्रता से पूर्ण है, क्योंकि यह हृदय में निरन्तर प्रभु का ध्यान कर रहा है ।
भावार्थ -
प्रभु का भक्त १. शत्रुओं का शोषण करता है २. शक्तिशाली होता है ३. आर्तों का त्राण करता है ४. पवित्र जीवनवाला होता है ५. परमैश्वर्य को प्राप्त करता है और ६. हृदय में निरन्तर प्रभु का ध्यान करता है ।
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