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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 130
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रं꣢ व꣣यं꣡ म꣢हाध꣣न꣢꣫ इन्द्र꣣म꣡र्भे꣢ हवामहे । यु꣡जं꣢ वृ꣣त्रे꣡षु꣢ व꣣ज्रि꣡ण꣢म् ॥१३०॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯म् । व꣣य꣢म् । म꣣हाधने꣣ । महा । धने꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् अ꣡र्भे꣢꣯ । ह꣣वामहे । यु꣡ज꣢꣯म् । वृ꣣त्रे꣡षु꣢ । व꣣ज्रि꣡ण꣢म् ॥१३०॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे । युजं वृत्रेषु वज्रिणम् ॥१३०॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रम् । वयम् । महाधने । महा । धने । इन्द्रम् अर्भे । हवामहे । युजम् । वृत्रेषु । वज्रिणम् ॥१३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 130
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

गत मन्त्र में धन का उल्लेख था। हम बाह्य धन को ही सर्वस्व समझ उसी के अर्जन में न जुट जाएँ, अतः इस मन्त्र में उस धन की आन्तरिक आत्मसम्पत्ति से तुलना कर उस धन को अल्पधन कहा गया है, जबकि यह आत्मसम्पत्ति ‘महाधन' है। (वयम्) = हम (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (महाधने) = इस महाधन की प्राप्ति के लिए ही (हवामहे) = पुकारते हैं। पुरुष शरीर और आत्मा के मेल का ही नाम है। शरीर आत्मा का मानो घर है- या वस्त्र है। जैसे घर की अपेक्षा घर में रहनेवाले का महत्त्व अधिक है, वस्त्र की तुलना में वस्त्र को धारण करनेवाला अधिक महान् है, उसी प्रकार आत्मा के साथ सम्बद्ध धन शरीर के लिए आवश्यक धन की तुलना में महान् है। हमें शरीर के लिए आवश्यक धन भी जुटाना चाहिए, क्योंकि शरीर रक्षा भी नितान्त आवश्यक है, शरीर को नीरोग रखना भी महान् कर्त्तव्य है। इस बात के विचार से ही मन्त्र में इस बाह्य धन के लिए भी प्रार्थना की गई है कि इन्द्रम्=उस सर्वैश्वर्यशाली प्रभु को (अर्भे) = अल्पधन के निमित्त (हवामहे) = हम पुकारते हैं। प्राकृतिक ऐश्वर्य ही अल्पधन है। उसके बिना संसार में जीवन यात्रा सम्भव नहीं। प्रभु से हम दोनों धनों की याचना करते हैं। किस प्रभु से?

१. (युजम्) = जो हमारे साथ रहनेवाले हमारे मित्र हैं। १२८वें मन्त्र में ('त्वायुजा वनेम तत्') = इस प्रभुरूपी साथी के साथ ही हमने कामविजय का निश्चय किया था। हृदय में आत्मा-परमात्मा दोनों का ही निवास है। २. (वृत्रेषु वज्रिणम् )= जो प्रभु वृत्रों पर वज्र गिरानेवाले हैं। हमारे ज्ञान पर आवरण डालनेवाला यह काम ही 'वृत्र' है। ये वासनाएँ हमें सत्य का स्वरूप देखने से वञ्चित किये रहती हैं। प्रभु का स्मरण होने पर ये नष्ट हो जातीं हैं- मानो प्रभु इनपर वज्रपात करके इन्हें समाप्त कर देते हैं।
इन वासनाओं के समाप्त हो जाने पर हम आत्मिक सम्पत्ति को प्रमुखता देते हैं। इस प्रमुखता देने का परिणाम होता है कि हमारी इच्छाएँ पवित्र बनी रहती हैं। हम 'मधुच्छन्दाः' होते हैं और किसी से द्वेष न करने के कारण हम 'वैश्वामित्र' होते हैं।

भावार्थ -

हम अपने जीवन में बाह्य व आन्तर धनों को उनका उचित स्थान देनेवाले बनें ।

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