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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1346
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
यु꣣ङ्क्ष्वा꣢꣫ हि के꣣शि꣢ना꣣ ह꣢री꣣ वृ꣡ष꣢णा कक्ष्य꣣प्रा꣢ । अ꣡था꣢ न इन्द्र सोमपा गि꣣रा꣡मुप꣢꣯श्रुतिं चर ॥१३४६॥
स्वर सहित पद पाठयुङ्क्ष्व꣢ । हि । के꣣शि꣡ना꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णा । क꣣क्ष्यप्रा꣢ । क꣣क्ष्य । प्रा꣢ । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । इन्द्र । सोमपाः । सोम । पाः । गिरा꣢म् । उ꣡प꣢꣯श्रुतिम् । उ꣡प꣢꣯ । श्रु꣣तिम् । चर ॥१३४६॥
स्वर रहित मन्त्र
युङ्क्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा । अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर ॥१३४६॥
स्वर रहित पद पाठ
युङ्क्ष्व । हि । केशिना । हरीइति । वृषणा । कक्ष्यप्रा । कक्ष्य । प्रा । अथ । नः । इन्द्र । सोमपाः । सोम । पाः । गिराम् । उपश्रुतिम् । उप । श्रुतिम् । चर ॥१३४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1346
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - तीन महान् कर्तव्य
पदार्थ -
प्रभु 'मधुच्छन्दा' से कहते हैं १ . (हि) = निश्चय से तू (हरी) = इन्द्रियाश्वों को अपने इस शरीररूप रथ में (युङ्क्ष्व) = जोत । कैसे इन्द्रियाश्वों को ? [क] (केशिना:) = जो प्रकाशवाले हैं [प्रकाशवन्तौ] अर्थात् जो ज्ञान की दीप्ति से दीप्त हैं [ख] (वृषणा) = शक्तिशाली हैं। ज्ञान और शक्ति प्राप्त करके जो [ग] (कक्ष्यप्रा) = [कक्ष्या - अंगुलि - नि० २.५] कर्मों के द्वारा अंगुलियों का पूरण करनेवाले हैं, अर्थात् जो इन्द्रियाश्व सदा ज्ञानपूर्वक कर्म में प्रवृत्त हैं । २. (अथ) = ऐसा करके, अर्थात् इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में जोतकर हे (इन्द्र) = इन्द्रियाश्वों को वश में रखनेवाले इन्द्र ! तू (नः) = हमारी प्राप्ति के लिए (सोमपा:) = सोम का – वीर्यशक्ति का – पान करनेवाला बन । सोम को अपने ही अन्दर सुरक्षित रख और ३. (नः गिराम्) = इन हमारी वेदवाणियों का (उपश्रुतिम्) = श्रवण (चर) = कर । तू सदा वेदवाणियों का श्रवण करनेवाला बन ।
भावार्थ -
इस प्रकार मधुच्छन्दा के तीन महान् कर्त्तव्य हैं
१. प्रकाशमय, शक्तिशाली-कर्म-व्यापृत घोड़ों - इन्द्रियों को शरीर-रथ में जोतना ।
२. सोम-शक्ति को शरीर में ही सुरक्षित रखना।
३. वेदवाणियों का श्रवण करना ।
गत मन्त्र में कहा था कि यह साधक अपने कर्त्तव्य को स्पष्ट देखता है। उन्हीं कर्त्तव्यों का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में हो गया है ।
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