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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1393
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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पि꣢बा꣣ त्व꣢३꣱स्य꣡ गि꣢र्वणः सु꣣त꣡स्य꣢ पूर्व꣣पा꣡ इ꣢व । प꣡रि꣢ष्कृतस्य र꣣सि꣡न꣢ इ꣣य꣡मा꣢सु꣣ति꣢꣫श्चारु꣣र्म꣡दा꣢य पत्यते ॥१३९३॥

स्वर सहित पद पाठ

पि꣡ब꣢꣯ । तु । अ꣣स्य꣢ । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । सु꣣त꣡स्य꣢ । पू꣣र्वपाः꣢ । पू꣣र्व । पाः꣢ । इ꣣व । प꣡रि꣢꣯ष्कृतस्य । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तस्य । रसि꣡नः꣢ । इ꣣य꣢म् । आ꣣सुतिः꣢ । आ꣣ । सुतिः꣢ । चा꣡रुः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । प꣣त्यते ॥१३९३॥


स्वर रहित मन्त्र

पिबा त्व३स्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव । परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥१३९३॥


स्वर रहित पद पाठ

पिब । तु । अस्य । गिर्वणः । गिः । वनः । सुतस्य । पूर्वपाः । पूर्व । पाः । इव । परिष्कृतस्य । परि । कृतस्य । रसिनः । इयम् । आसुतिः । आ । सुतिः । चारुः । मदाय । पत्यते ॥१३९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1393
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे जीव ! तू (गिर्वणः) = वेदवाणियों का सेवन करनेवाला है— उन वाणियों के द्वारा प्रभु का उपासक है [वन्=संभक्ति], (पूर्वपाः इव) = सबसे प्रथम पान करनेवाले की भाँति (अस्य सुतस्य) = इस शरीर में उत्पन्न हुए-हुए सोम का (पिब तु) = पान कर ही । इसे तू अवश्य अपने शरीर में सुरक्षित करनेवाला बन। यह सोम १. (परिष्कृतस्य) = शरीर में बड़ी विशिष्ट व्यवस्था से तैयार किया जाकर शरीर को स्वास्थ्यादि गुणों से अलंकृत करनेवाला है । २. (रसिनः) = यह जीवन में एक अनिर्वचनीय रस उत्पन्न करता है और अन्त में उस 'रस' स्वरूप प्रभु को प्राप्त करानेवाला है।

प्रभु जीव से कहते हैं कि (इयम् आसुति:) = इस सोम [वीर्य] की उत्पत्ति (चारुः) = अत्यन्त सुन्दर है, अर्थात् यह मेरी सुन्दरतम कृति है । यह (मदाय) = जीवन में विशिष्ट उल्लास के लिए (पत्यते) = समर्थ होती है। इससे ही जीवन का सारा माधुर्य प्राप्त होता है। इसी से इसका नाम ही 'मधु' हो गया है।

भावार्थ -

सोमरक्षा का सर्वोत्तम साधन ज्ञानप्राप्ति में लगे रहना और प्रभु का उपासक बनना है। सोमरक्षा को हम प्रमुखता देंगे तो हमारा जीवन परिष्कृत, चारु व मद-उल्लासवाला होगा।

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