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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1435
ऋषिः - कविर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢स्व वृ꣣ष्टि꣢꣫मा सु नो꣣ऽपा꣢मू꣣र्मिं꣢ दि꣣व꣡स्परि꣢꣯ । अ꣣यक्ष्मा꣡ बृ꣢ह꣣ती꣡रिषः꣢꣯ ॥१४३५॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯स्व । वृ꣣ष्टि꣢म् । आ । सु । नः꣣ । अपा꣢म् । ऊ꣣र्मि꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । अ꣣यक्ष्माः꣢ । अ꣣ । यक्ष्माः꣢ । बृ꣣हतीः꣢ । इ꣡षः꣢꣯ ॥१४३५॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व वृष्टिमा सु नोऽपामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा बृहतीरिषः ॥१४३५॥
स्वर रहित पद पाठ
पवस्व । वृष्टिम् । आ । सु । नः । अपाम् । ऊर्मिम् । दिवः । परि । अयक्ष्माः । अ । यक्ष्माः । बृहतीः । इषः ॥१४३५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1435
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - सात्त्विक, सर्वोत्तम अन्न
पदार्थ -
वैदिक संस्कृति का एक सिद्धान्त है जिसे सामान्यभाषा में “जैसा अन्न वैसा मन' इन शब्दों में कहा गया है । उपनिषद् ने इसे ('आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः । स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः') इन शब्दों में कहा है कि 'आहार की शुद्धि होने पर अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्त:करण की शुद्धि में अपने स्वरूप व लक्ष्य का स्मरण रहता है और स्मृति रहने पर वासना-ग्रन्थियों का विनाश हुआ करता है'। इस तत्त्व को जानकर मन्त्र का ऋषि 'कविभार्गव' [तत्त्वद्रष्टा व तेजस्वी] सात्त्विक अन्न के लिए प्रार्थना करता है । वह यह भी समझता है कि 'सर्वोत्तम अन्न' वृष्टि-जन्य है, अतः वृष्टि के लिए प्रार्थना करता हुआ वह कहता है कि -
हे सोम प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (वृष्टिम्) = वृष्टि को (सु) = उत्तम प्रकार से आ चारों ओर [निकामे निकामे] उस-उस इष्ट स्थान में (आपवस्व) = क्षरित कीजिए – बरसाइए । (दिवः) = द्युलोकों से (अपाम् उर्मिम्) = जलों के संघातों को (परि) [ पवस्व ] = टपकाइए । इस प्रकार (अ-यक्ष्मा:) = शरीर को रोगों से आक्रान्त न होने देनेवाले स्वास्थ्यप्रद तथा (बृहती:) = वृद्धि के कारणभूत- हृदय को विशाल बनानेवाले (इषः) = अन्नों को हमें प्राप्त कराइए ।
भावार्थ -
वृष्टिजलों से उत्पन्न सात्त्विक अन्नों से १. हमारे शरीर नीरोग बनें, और २. हमारे हृदय विशाल हों ।
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