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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1443
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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अ꣣स्मा꣡अ꣢स्मा꣣ इद꣢꣫न्ध꣣सो꣡ऽध्व꣢र्यो꣣ प्र꣡ भ꣢रा सु꣣त꣢म् । कु꣣वि꣡त्स꣢मस्य꣣ जे꣡न्य꣢स्य꣣ श꣡र्ध꣢तो꣣ऽभि꣡श꣢स्तेरव꣣स्व꣡र꣢त् ॥१४४३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣स्मै꣢ । अ꣣स्मै । इ꣢त् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । अ꣡ध्य꣢꣯र्यो । प्र । भ꣣र । सुत꣢म् । कु꣣वि꣢त् । स꣣मस्य । जे꣡न्य꣢꣯स्य । श꣡र्ध꣢꣯तः । अ꣣भि꣡श꣢स्तेः । अ꣣भि꣢ । श꣣स्तेः । अवस्व꣡र꣢त् । अ꣣व । स्व꣡र꣢꣯त् ॥१४४३॥


स्वर रहित मन्त्र

अस्माअस्मा इदन्धसोऽध्वर्यो प्र भरा सुतम् । कुवित्समस्य जेन्यस्य शर्धतोऽभिशस्तेरवस्वरत् ॥१४४३॥


स्वर रहित पद पाठ

अस्मै । अस्मै । इत् । अन्धसः । अध्यर्यो । प्र । भर । सुतम् । कुवित् । समस्य । जेन्यस्य । शर्धतः । अभिशस्तेः । अभि । शस्तेः । अवस्वरत् । अव । स्वरत् ॥१४४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1443
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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पदार्थ -

प्रभु ‘भारद्वाज बार्हस्पत्य' को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (अध्वर्यो) = अहिंसा से अपने को युक्त करनेवाले [अध्वर-यु] । अपनी किसी शक्ति व ज्ञान की हिंसा न होने देनेवाले भरद्वाज ! तू (अन्धसः) = अत्यन्त ध्यान देने योग्य - सावधानी से रक्षा करने योग्य – इस सोम के (सुतम्) = उत्पन्न कण-कण को (अस्मा अस्मा इत्) = इस आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए ही (प्र-भर) = प्रकर्षेण धारण कर । इसका अपव्यय न होने देकर- इसकी ऊर्ध्वगति से अपने ज्ञान को बढ़ाता हुआ तू मेधिर और धृषत्-बुद्धिमान् और शत्रुओं का धर्षण करनेवाला बनकर प्रभु को प्राप्त करनेवाला बन।

यह सुरक्षित सोम (समस्य) = सब (जेन्यस्य) = जीतने योग्य (शर्धतः) = [शृध to cut off] हमारी शक्तियों को क्षीण करती हुई (अभिशस्तेः) = अभिशापरूप बुराइयों के (कुवित्) = अति (अवस्वरत्) = उत्ताप से पृथक् करता है। [स्वृ=उपताप] । सोम को सुरक्षित करने पर काम, क्रोध, लोभ आदि वासनाएँ मनुष्यों को सन्तप्त नहीं कर पातीं ।

भावार्थ -

सोम सुरक्षित होकर मनुष्य को वासनाओं के सन्ताप से बचाता है ।

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