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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1455
ऋषिः - विभ्राट् सौर्यः
देवता - सूर्यः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
4
इ꣣द꣢꣫ꣳ श्रेष्ठं꣣ ज्यो꣡ति꣢षां꣣ ज्यो꣡ति꣢रुत्त꣣मं꣡ वि꣢श्व꣣जि꣡द्ध꣢न꣣जि꣡दु꣢च्यते बृ꣣ह꣢त् । वि꣣श्वभ्रा꣢ड् भ्रा꣣जो꣢꣫ महि꣣ सू꣡र्यो꣢ दृ꣣श꣢ उ꣣रु꣡ प꣢प्रथे꣣ स꣢ह꣣ ओ꣢जो꣣ अ꣡च्यु꣢तम् ॥१४५५
स्वर सहित पद पाठइद꣣म्꣢ । श्रे꣡ष्ठ꣢꣯म् । ज्यो꣡ति꣢꣯षाम् । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । उ꣣त्तम꣢म् । वि꣣श्वजि꣢त् । वि꣣श्व । जि꣢त् । ध꣣नजि꣢त् । ध꣣न । जि꣢त् । उ꣣च्यते । बृह꣢त् । वि꣣श्वभ्रा꣢ट् । वि꣣श्व । भ्रा꣢ट् । भ्रा꣣जः꣢ । म꣡हि꣢꣯ । सू꣡र्यः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ । उ꣣रु꣢ । प꣣प्रथे । स꣡हः꣢꣯ । ओ꣡जः꣢꣯ । अ꣡च्यु꣢꣯तम् । अ । च्यु꣣तम् ॥१४५५॥
स्वर रहित मन्त्र
इदꣳ श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमं विश्वजिद्धनजिदुच्यते बृहत् । विश्वभ्राड् भ्राजो महि सूर्यो दृश उरु पप्रथे सह ओजो अच्युतम् ॥१४५५
स्वर रहित पद पाठ
इदम् । श्रेष्ठम् । ज्योतिषाम् । ज्योतिः । उत्तमम् । विश्वजित् । विश्व । जित् । धनजित् । धन । जित् । उच्यते । बृहत् । विश्वभ्राट् । विश्व । भ्राट् । भ्राजः । महि । सूर्यः । दृशे । उरु । पप्रथे । सहः । ओजः । अच्युतम् । अ । च्युतम् ॥१४५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1455
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - ब्रह्मज्योति, ज्योतिषां ज्योतिः
पदार्थ -
(इदम्) = यह (ज्योतिषां ज्योतिः) = ज्योतियों की ज्योति, ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्'-विद्याओं में भी विद्या ब्रह्मज्ञान की ज्योति १. (श्रेष्ठम्) = प्रशस्यतम है । यह मनुष्य को अत्यन्त उत्कृष्ट कर्मों में प्रवृत्त करती है । २. (उत्तमम्) = यह मानव जीवन को उत्तम बनानेवाली है। प्रकृति का ज्ञान उत्उत्कृष्ट है, जीव का ज्ञान उत्तर – उत्कृष्टतर है और ब्रह्म का ज्ञान उत्तम – — उत्कृष्टतम है। इससे अधिक उत्कृष्ट ज्ञान नहीं है, यह ज्ञान की पराकाष्ठा है।
यह ज्ञान ३. (विश्वजित्) = सबका विजय करनेवाला है, संसार को जीतनेवाला है—विश्व को जीतकर मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करानेवाला है । एवं, यह ज्ञान निः श्रेयस का साधक है। ४. धनजित्=ऐहिक यात्रा के साधनभूत धन को भी यह जीतनेवाला है, अर्थात् निः श्रेयस के साथ यह ‘अभ्युदय' को भी प्राप्त करानेवाला है, इसीलिए यह ज्ञान ५. (बृहत्) = वृद्धि का साधनभूत उच्यते-कहा जाता है । ६. यह ज्ञान तो मनुष्य के लिए (विश्वभ्राट्) = सारे संसार को दीप्त करनेवाला है । (यस्मिन् विदिते सर्वं विदितम्) । इसका ज्ञान होने पर सभी कुछ ज्ञात हो जाता है, अतः ब्रह्मज्योति ‘विश्वभ्राट्' कही गयी है। इसी दृष्टिकोण से ७. यह (महिभ्राजः) = महनीय ज्योति है । ८. यह ज्योति तो (सूर्यः दृशे) = ज्ञान के लिए सूर्य के समान है। सूर्य के उदय होने पर जैसे सम्पूर्ण पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं उसी प्रकार इस ज्योति के उदय होने पर किसी विषय में अन्धकार नहीं रहता । ९. (उरु पप्रथे) = यह ज्योति अत्यन्त विस्तृत होती है । १०. यह ज्योति (सहः) = सहस् का पुञ्ज है— यह मनुष्य में अद्भुत सहनशक्ति देनेवाली है । ११. यह (ओजः) = मनुष्य को ओजस्वी बनाती है । ज्ञान 'शक्ति' तो है ही [knowledge is power] । १२. (अच्युतम्) = यह उसे ओजस्वी बनाकर कभी भी न्याय्य मार्ग से विचलित न होनेवाला बना देती है । इस द्वादशगुणात्मक ज्योति को प्राप्त करना ही 'द्वादशाह' यज्ञ है।
भावार्थ -
हम ज्योतियों-की-ज्योति ब्रह्मज्योति को प्राप्त करने का प्रयत्न करें ।
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