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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1488
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्रः छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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अ꣢ध꣣ त्वि꣡षी꣢माꣳ अ꣣भ्यो꣡ज꣢सा꣣ कृ꣡विं꣢ यु꣣धा꣡भ꣢व꣣दा꣡ रोद꣢꣯सी अपृणदस्य म꣣ज्म꣢ना꣣ प्र꣡ वा꣢वृधे । अ꣡ध꣢त्ता꣣न्यं꣢ ज꣣ठ꣢रे꣣ प्रे꣡म꣢रिच्यत꣣ प्र꣡ चे꣢तय꣣ सै꣡न꣢ꣳ सश्चद्दे꣣वो꣢ दे꣣व꣢ꣳ स꣣त्य꣡ इन्दुः꣢꣯ स꣣त्य꣡मिन्द्र꣢꣯म् ॥१४८८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ध꣢꣯ । त्वि꣡षी꣢꣯मान् । अ꣣भि꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । कृ꣡वि꣢꣯म् । यु꣣धा꣢ । अ꣣भवत् । आ꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । अ꣣पृणत् । अस्य । मज्म꣡ना꣢ । प्र꣢ । वा꣣वृधे । अ꣡ध꣢꣯त्त । अ꣣न्य꣢म् । अ꣣न् । य꣢म् । ज꣣ठ꣡रे꣢ । प्र । ई꣣म् । अरिच्यत । प्र꣢ । चे꣣तय । सः꣢ । ए꣣नम् । सश्चत् । दे꣣वः꣢ । दे꣣व꣢म् । स꣣त्यः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । स꣣त्य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् ॥१४८८॥


स्वर रहित मन्त्र

अध त्विषीमाꣳ अभ्योजसा कृविं युधाभवदा रोदसी अपृणदस्य मज्मना प्र वावृधे । अधत्तान्यं जठरे प्रेमरिच्यत प्र चेतय सैनꣳ सश्चद्देवो देवꣳ सत्य इन्दुः सत्यमिन्द्रम् ॥१४८८॥


स्वर रहित पद पाठ

अध । त्विषीमान् । अभि । ओजसा । कृविम् । युधा । अभवत् । आ । रोदसीइति । अपृणत् । अस्य । मज्मना । प्र । वावृधे । अधत्त । अन्यम् । अन् । यम् । जठरे । प्र । ईम् । अरिच्यत । प्र । चेतय । सः । एनम् । सश्चत् । देवः । देवम् । सत्यः । इन्दुः । सत्यम् । इन्द्रम् ॥१४८८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1488
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

यह ‘गृत्समद शौनक' (अध) = अब-गत मन्त्र के वर्णन के अनुसार प्रभु के समीप पहुँचने के पश्चात् (त्विषीमान्) =  कान्तिवाला होता है— दीप्तिवाला होता है— ब्रह्मतेज से इसका चेहरा चमकता । है । (ओजसा) = ओज के द्वारा (युधा) = युद्ध से यह (क्रिविम्) = [नि० ४.५८ killing] =संहारक शत्रुओं को जिन्हें पिछले मन्त्र में 'मृध:'=murderers हिंसक कहा गया था, (अभ्यभवत्) = जीत लेता है। कामादि शत्रुओं को परास्त करके यह (रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को, अर्थात् अपने मस्तिष्क व शरीर को (आ) = सर्वथा (अपृणत्) = पूर्ण करता है। शरीर में रोगादि से कमी को नहीं आने देता और मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की मन्दता से अन्धकार उत्पन्न नहीं होने देता। इसका शरीर नीरोग तथा मस्तिष्क दीप्त बना रहता है। (अस्य) = इस प्रभु के (मज्मना) = बल से [नि० २.१०.२३] यह (प्रवावृधे) = अतिशय वृद्धि को प्राप्त करता है ।

यह गृत्समद (अन्यम्) = विलक्षण, अनिर्वचनीय शक्तिवाले प्रभु को (जठरे) = अपने हृदय [bosom] में (आधत्त) = धारण करता है— अर्थात् उसे अपना सच्चा मित्र [bosom friend] बनाता है तो (ईम्) = निश्चय से (प्र अरिच्यत) = खूब वृद्धि व उत्कर्ष को प्राप्त करता है ।

हे गृत्समद ! तू (प्रचेतय) = इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि (एनं देवम्) = इस देव को जीव (देव:) = देव बनकर ही (सश्चत्) = प्राप्त होता है, (सत्यम्) = सत्य प्रभु को (सत्यः) = सत्य बनकर तथा (इन्द्रम्) = परम शक्तिमान् प्रभु को (इन्दुः) = शक्तिशाली बनकर ही (सश्चत्) = प्राप्त होता है । 

भावार्थ -

हमें उत्कर्ष के लिए प्रभु को ही अपना सच्चा मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिए ।

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