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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1495
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णः, त्रसदस्युः पौरुकुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ऊर्ध्वा बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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आ꣢दीं꣣ के꣢ चि꣣त्प꣡श्य꣢मानास꣣ आ꣡प्यं꣢ वसु꣣रु꣡चो꣢ दि꣣व्या꣢ अ꣣꣬भ्य꣢꣯नूषत । दि꣣वो꣡ न वार꣢꣯ꣳ सवि꣣ता꣡ व्यू꣢र्णुते ॥१४९५॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢त् । ई꣣म् । के꣢ । चि꣢त् । प꣡श्य꣢꣯मानासः । आ꣡प्य꣢꣯म् । व꣣सुरु꣡चः꣢ । व꣣सु । रु꣡चः꣢꣯ । दि꣣व्याः꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣नूषत । दिवः꣢ । न । वा꣡र꣢꣯म् । स꣣विता꣢ । वि । ऊ꣣र्णुते ॥१४९५॥


स्वर रहित मन्त्र

आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत । दिवो न वारꣳ सविता व्यूर्णुते ॥१४९५॥


स्वर रहित पद पाठ

आत् । ईम् । के । चित् । पश्यमानासः । आप्यम् । वसुरुचः । वसु । रुचः । दिव्याः । अभि । अनूषत । दिवः । न । वारम् । सविता । वि । ऊर्णुते ॥१४९५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1495
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हृदय में श्रद्धा तथा मस्तिष्क में ज्योति के विकास के (आत् ईम्) = ठीक पश्चात् - बिना किसी अन्य बिलम्ब के (केचित्) = कुछ– विरल पुरुष उस (आप्यम्) = सबके प्राप्त करने योग्य (दिव्याः वसुरुचः) = सर्वत्र बसनेवाले व सभी को अपने में निवास देनेवाले प्रभु की दिव्य कान्तियों को (पश्यमानासः) = देखते हुए (अभ्यनूषत) - उसका स्तवन करते हैं।

आत्मतत्त्व की ओर विरल पुरुषों की ही प्रवृत्ति होती है। (‘आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम्') प्रभु-दर्शन की प्रबल इच्छा होने पर यह व्यक्ति अपने में श्रद्धा व ज्ञान का विकास करने के लिए सतत प्रयत्नशील होता है, क्योंकि इनके बिना प्रभु-दर्शन सम्भव नहीं ? यह अनुभव करता है कि प्रभु ही मेरे लिए प्राप्त करने योग्य हैं । यह कहता है कि

मैं एकमात्र प्रभु को ही अपनी शरण अनुभव करूँ । इसे अनुभव होता है कि प्रभु ही वसु हैं—मेरे उत्तम निवास के कारण हैं। प्रभु की दिव्य कान्तियों को देखता हुआ यह गद्गद हो उठता है और सहज ही प्रभु के स्तवन में प्रवृत्त होता है ।

वह (सविता) = सबको प्रेरणा देनेवाला प्रभु भी (दिवः) = प्रकाश के (वारं न) = आवरण से बने हुए [न – इव] कामादि को (व्यूर्णुते) = परे हटा देता है। जैसे किसी वस्तु के आवरण को खोल दिया जाता है, उसी प्रकार यह सविता देव अपने स्तोता के ज्ञान के आवरण को हटा देते हैं, अर्थात् उसे उत्तम बुद्धि प्राप्त कराते हैं ।

भावार्थ -

हम प्रभु की दिव्य कान्ति को देखनेवाले हों । प्रभु कृपा से हमारी बुद्धियों का विकास हो ।

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