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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1501
ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣हं꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ गि꣡रः꣢ शुम्भामि कण्व꣣व꣢त् । ये꣢꣫नेन्द्रः꣣ शु꣢ष्म꣣मि꣢द्द꣣धे꣢ ॥१५०१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ह꣢म् । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । गि꣡रः꣢꣯ । शु꣣म्भाभि । कण्वव꣢त् । ये꣡न꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । शु꣡ष्म꣢꣯म् । इत् । द꣣धे꣢ ॥१५०१॥


स्वर रहित मन्त्र

अहं प्रत्नेन जन्मना गिरः शुम्भामि कण्ववत् । येनेन्द्रः शुष्ममिद्दधे ॥१५०१॥


स्वर रहित पद पाठ

अहम् । प्रत्नेन । जन्मना । गिरः । शुम्भाभि । कण्ववत् । येन । इन्द्रः । शुष्मम् । इत् । दधे ॥१५०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1501
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(अहम्) = मैं प्रत्ननेन (जन्मना) = पुराने जन्म से, अर्थात् from my early childhood=छुटपन से ही, बाल्यकाल से ही (गिरः) = इन वेदवाणियों को (कण्ववत्) = एक मेधावी पुरुष के समान, अर्थात् बड़े शुद्धरूप में उदाहरणार्थ 'मनसा रेजमाने' नकि 'मन - सारे जमाने' (शुम्भामि) = उच्चारण करता हूँ [शुंभ्=to speak]। वैदिक काल की परिपाटी यह थी कि एक बालक अत्यन्त शैशवकाल से ही वेदमन्त्रों का शुद्ध उच्चारण करने लगता था।

इन वेदमन्त्रों के शैशव से ही उच्चारण का लाभ यह होता है कि व्यक्ति का चरित्र सुन्दर बना रहता है। 'मन्त्र - स्मरण-व्यसन' उसे अन्य व्यसनों से बचाये रखता है और इस प्रकार यह वेदमन्त्रोच्चारण ऐसा होता है कि (येन) = जिससे (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (इत्) = निश्चय से (शुष्पम्) = बल को (दधे) = धारण करता है ।

यह वेदमन्त्रों का उच्चारण करने से 'वत्स' कहलाता है [वदतीति] । इन वेदमन्त्रों के उच्चारण से यह प्रभु का प्रिय होने से भी 'वत्स' है ।

भावार्थ -

हम शैशव से ही वेदमन्त्रों का शुद्ध उच्चारण प्रारम्भ करें।

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