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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1510
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
उ꣢पो꣣ ह꣡री꣢णां꣣ प꣢ति꣣ꣳ रा꣡धः꣢ पृ꣣ञ्च꣡न्त꣢मब्रवम् । नू꣣न꣡ꣳ श्रु꣢धि स्तुव꣣तो꣢ अ꣣श्व्य꣡स्य꣢ ॥१५१०॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । ऊ꣣ । ह꣡री꣢꣯णाम् । प꣡ति꣢꣯म् । रा꣡धः꣢꣯ । पृ꣣ञ्च꣢न्त꣢म् । अ꣣ब्रवम् । नून꣢म् । श्रु꣣धि । स्तुवतः꣢ । अ꣣श्व्य꣡स्य꣢ ॥१५१०॥
स्वर रहित मन्त्र
उपो हरीणां पतिꣳ राधः पृञ्चन्तमब्रवम् । नूनꣳ श्रुधि स्तुवतो अश्व्यस्य ॥१५१०॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । ऊ । हरीणाम् । पतिम् । राधः । पृञ्चन्तम् । अब्रवम् । नूनम् । श्रुधि । स्तुवतः । अश्व्यस्य ॥१५१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1510
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - जितेन्द्रियता व सफलता, स्तुति व क्रियाशीलता
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वैयश्व' विशिष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला प्रभु से प्रार्थना करता है कि (उप उ) = निश्चय से प्रभु के समीप बैठकर - उसके समीप निवास करता हुआ मैं (हरीणां पतिम्) = इन्द्रियरूप अश्वों के पति (राध: पृञ्चन्तम्) = मुझे जीवन में सफलता का सम्पर्क कराते हुए प्रभु को (अब्रवम्) = मैंने कहा है कि आप (नूनम्) = निश्चय से (स्तुवतः) = स्तुति करते हुए (अश्व्यस्य) [अश् व्याप्तौ]=सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाले मेरी प्रार्थना को (श्रुधि) = सुनिए ।
‘वैयश्व’=अपने इन्द्रियरूप अश्वों को इसीलिए विशिष्ट बना पाया है कि वह प्रभु को ‘हरीणां पति'= '= इन्द्रियों के स्वामी के रूप में देखता है— प्रभु 'हृषीकेश' - इन्द्रियों के ईश हैं । प्रभु जितेन्द्रियता के द्वारा हमारे साथ सफलता का सम्पर्क करते हैं। ('संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति')= इन्द्रियों का संयम करके सफलता को प्राप्त करता है ।
‘वैयश्व' यह भी समझता है कि प्रभु केवल प्रार्थना करनेवाले की बात नहीं सुनते । प्रभु तो उसी की बात सुनते हैं जो स्तुति के साथ कर्म भी करता है । 'स्तुवन्' होता हुआ 'अश्व' भी है । आचार्य के शब्दों में प्रार्थना तो पूर्ण परिश्रम के उपरान्त ही करनी ठीक है ।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रियता व सफलता के कार्यकारणभाव को समझें । हम स्तुति करनेवाले बनें, परन्तु साथ ही क्रियाशील भी हों ।