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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 152
ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣ह꣢꣫मिद्धि पि꣣तु꣡ष्परि꣢ मे꣣धा꣢मृ꣣त꣡स्य꣢ ज꣣ग्र꣡ह꣢ । अ꣣ह꣡ꣳ सूर्य꣢꣯ इवाजनि ॥१५२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ह꣢म् । इत् । हि । पि꣣तुः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । मे꣣धा꣢म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ज꣣ग्र꣡ह꣢ । अ꣣ह꣢म् । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । अजनि ॥१५२॥


स्वर रहित मन्त्र

अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रह । अहꣳ सूर्य इवाजनि ॥१५२॥


स्वर रहित पद पाठ

अहम् । इत् । हि । पितुः । परि । मेधाम् । ऋतस्य । जग्रह । अहम् । सूर्यः । इव । अजनि ॥१५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 152
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

ज्ञान के बिना मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं, परन्तु ज्ञान प्राप्ति बड़ा तीव्र तप व श्रम चाहती है, अतः मनुष्य कल्याण-प्राप्ति के किसी सरल मार्ग की खोज में रहता है। आधुनिक जगत् में सन्तों की वाणियों ने भक्ति के रूप में उसे वह सरल मार्ग प्राप्त करा ही दिया है, परन्तु क्या ज्ञानशून्य भक्ति से कभी कल्याण सम्भव हो सकता है? नहीं, और कभी नहीं । वेद स्पष्ट कह रहा है कि १. ('तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय') = उस प्रभु के ज्ञान के बिना मृत्यु को लाँघने व मुक्त होने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। २. प्रभु ने मनुष्य को सृष्टि के आरम्भ में 'वेद'=ज्ञान ही दिया था। दो वस्तुएँ इसलिए नहीं कि मनुष्य उनमें तुलना न करने लग जाए । ३. प्रभु ने हमारा नाम ही 'मनुष्य' इसलिए रक्खा था कि हम सदा अवबोध व ज्ञान-प्राप्तिरूप लक्ष्य को न भूलें । ४. वेद में प्रभु ने तीन काण्ड रक्खे हैं—ज्ञान, कर्म और उपासना ५. प्रभु ने ज्ञानप्राप्ति के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्म करने के लिए कर्मेन्द्रियाँ दी हैं। इनके अतिरिक्त उपासना के लिए कोई उपासनेन्द्रिय नहीं दी। वस्तुतः ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही उपासना हो जाती है, अतः अलग इन्द्रिय की आवश्यकता भी नहीं है। ६. मस्तिष्क- प्रयोग में श्रम है, हस्तप्रयोग में श्रम है। हृदय- गति तो स्वयं होती रहती है एवं ज्ञान और कर्म होने पर उपासना स्वतः हो जाती है । ७. चतुर्विध भक्तों में ('ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्')= ज्ञानीभक्त ही प्रभु को आत्मतुल्य प्रिय है।

इस ज्ञान-प्राप्ति के लिए इिस मन्त्र का ऋषि 'वत्स' प्रभु से उच्चारण [ पुरस्तात् शुक्रं उच्चरत्] किये गये वेदमन्त्रों का उच्चारण करता है [ वदतीति वत्स :], इसीलिए यह प्रभु का प्रिय होता है [वत्सः - प्रिय] । कण-कण करके ज्ञान का संग्रह करते चलने से यह 'काण्व' कहलाता है। यह वत्स कहता है कि (अहम्) = मैं (इत् हि) = सचमुच, निश्चय से (पितुः) = ज्ञानदाता उस परमपिता से (ऋतस्य) = सत्य ही [सत्सज्ञान की] (मेधाम्) = बुद्धि को (परिजग्रह) = सर्वतः ग्रहण करता हूँ। सब सत्य ज्ञानों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता हूँ। इस प्रकार सत्य ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करके (अहम्) = मैं (सूर्यः इव) = सूर्य की भाँति (अजनि) = हो गया हूँ। अज्ञानान्धकार के दूर हो जानेपर ही मानव का कल्याण होता है । यह प्रकाश सब पाप-कालिमा को धो डालता है।

भावार्थ -

सत्य ज्ञान को प्राप्त करके हम सूर्य की भाँति चमकें।

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