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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1525
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
आ꣡ नो꣢ अग्ने र꣣यिं꣡ भ꣢र सत्रा꣣सा꣢हं꣣ व꣡रे꣢ण्यम् । वि꣡श्वा꣢सु पृ꣣त्सु꣢ दु꣣ष्ट꣡र꣢म् ॥१५२५॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । अग्ने । रयि꣢म् । भ꣣र । स꣡त्रासाह꣢म् । स꣣त्रा । सा꣡ह꣢꣯म् । व꣡रे꣢꣯ण्यम् । वि꣡श्वा꣢꣯सु । पृ꣣त्सु꣢ । दु꣣ष्ट꣡र꣢म् । दुः꣣ । त꣡र꣢꣯म् ॥१५२५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्यम् । विश्वासु पृत्सु दुष्टरम् ॥१५२५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । अग्ने । रयिम् । भर । सत्रासाहम् । सत्रा । साहम् । वरेण्यम् । विश्वासु । पृत्सु । दुष्टरम् । दुः । तरम् ॥१५२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1525
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - वह सदा वरणीय शक्ति
पदार्थ -
हे (अग्ने) = सर्वशत्रु संहारक रुद्ररूप अग्ने! आप (न:) = हमें (आ) = सब प्रकार से (रयिम्) = उस शक्ति को [वीर्यं वै रयिः–श० १३.४.२.१३] (भर) = प्राप्त कराइए, जो १. (सत्रासाहम्) - सदा शत्रुओं का पराभव करनेवाली
है, २. (वरेण्यम्) = वरणीय है, चाहने योग्य है, ३. (विश्वासु पृत्सु) = सब संग्रामों में शत्रुओं से (दुष्टरम्) = दुस्तर है। रुद्र के सब नामों का उल्लेख करके शतपथब्राह्मण [६.१.३.१८] में कहा है कि 'तान्येतानि अष्टौ अग्निरूपाणि'=ये आठों रुद्र आदि अग्नि के रूप हैं। रुद्र शत्रुओं का संहार करके शिव-कल्याण करनेवाले हैं। इस अग्नि-संहारक रुद्ररूप अग्नि से गोतम प्रार्थना करता है कि 'आप हमें वह शक्ति प्राप्त कराइए जो हमें सदा रोगों तथा काम-क्रोधादि शत्रुओं का पराभव करने में समर्थ बनाती है अतएव हमसे सदा वरणीय होती है, जिस शक्ति को न तो कीटाणुओं [germs] और न ही आसुरवृत्तियों के आक्रमण पराभूत कर पाते हैं। दूसरे शब्दों में जिस शक्ति से स्वस्थ रहकर हम गोतम=प्रशस्तेन्द्रिय होते हैं और काम, क्रोध तथा लोभ को कोसों दूर भगानेवाले 'राहूगण' बनते हैं।'
भावार्थ -
प्रभु-स्तवन से हम सदा विजयशील, वरणीय, वासनाओं का वारण करनेवाली शक्ति का लाभ करें ।
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