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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1536
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
त्वं꣢ जा꣣मि꣡र्जना꣢꣯ना꣣म꣡ग्ने꣢ मि꣣त्रो꣡ अ꣢सि प्रि꣣यः꣢ । स꣢खा꣣ स꣡खि꣢भ्य꣣ ई꣡ड्यः꣢ ॥१५३६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । जा꣣मिः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । अ꣣सि । प्रियः꣢ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । स꣡खि꣢꣯भ्यः । स । खि꣣भ्यः । ई꣡ड्यः꣢꣯ ॥१५३६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं जामिर्जनानामग्ने मित्रो असि प्रियः । सखा सखिभ्य ईड्यः ॥१५३६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । जामिः । जनानाम् । अग्ने । मित्रः । मि । त्रः । असि । प्रियः । सखा । स । खा । सखिभ्यः । स । खिभ्यः । ईड्यः ॥१५३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1536
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - वास्तविक बन्धु
पदार्थ -
साहित्य में एक शैली है कि आचार्य ही विद्यार्थी से पूछता है कि 'कौन तेरा आचार्य है ?' और उसे समझा भी देता है कि 'अग्नि तेरा आचार्य है।' इसी प्रकार वेद में कई बातें जीव को प्रभु प्रश्नोत्तर के प्रकार से समझाते हैं। यहाँ इसी शैली से कुछ बातें समझाई गयी हैं—
प्रश्न – १. (कः ते जनानां जामिः) = मनुष्यों में तेरा बन्धु कौन है ?
उत्तर – (अग्ने त्वं जनानां जामि:) = हे अग्रगति के साधक प्रभो! आप ही मनुष्यों के बन्धु हो । संसार में अन्य सब मित्रताएँ सामयिक हैं तथा कुछ प्रयोजन को लिये हुए होती हैं। केवल एक प्रभु की मित्रता ही स्वार्थ से शून्य तथा सार्वकालिक है । प्रभु हमारा साथ कभी भी छोड़ते नहीं । पत्नी भी, माता भी साथ छोड़ देती हैं, पक्के-से-पक्के मित्र विरोधी बन जाते हैं, परन्तु प्रभु की मित्रता में कभी अन्तर नहीं आता ।
प्रश्न – २. (अग्ने) = हे उन्नतिशील जीव ! (कः दाशु + अध्वरः) = कौन तुझे ये सब वस्तुएँ देनेवाला है [दाशृ दाने] तथा कौन हिंसारहित तेरा भला करनेवाला है ?
उत्तर—(अग्ने प्रियः मित्रः असि) = हे अग्रगति के साधक प्रभो ! आप ही [प्री तर्पणे] सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराके मुझे तृप्त करनेवाले हैं। संसार में सबका दान सीमित है, परन्तु परमात्मा का दान असीम है, प्रभु ही हमें सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कराते हैं।
प्रश्न – ३. (कः ह) = वह प्रभु कौन हैं ? तेरे साथ उसका क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर—(सखा) = वे तेरे मित्र हैं। वस्तुत: (‘अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितम्') = जिसका कोई भी रक्षक नहीं होता प्रभु ही उसके रक्षक होते हैं। प्रभु ही अन्तिम व श्रेष्ठ मित्र हैं— वे ही सदा अन्त तक साथ देनेवाले हैं।
प्रश्न –४. (कस्मिन् असि श्रितः) = किसमें तू आश्रय पाये हुए है ?
उत्तर – (सखिभ्यः ईड्यः) = प्रभु ही मित्रों से स्तुति के योग्य हैं। हमें सदा उस प्रभु का ही आश्रय करना, प्रभु की ही उपासना करनी ।
प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि इस तत्त्व को समझ लेता है कि प्रभु ही मेरे बन्धु हैं । २. वे ही मुझे सब आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करानेवाले और सब हिंसाओं से बचानेवाले हैं। ३. वे ही मेरे सखा हैं और ४. उस प्रभु का ही मुझे आश्रय है । इन सब बातों को समझकर वह सदा इन्द्रियों को प्रशस्त
कर्मों में लगानेवाला बना रहता है, परिणामतः ‘गोतम' बनता है और संसार के सब मिथ्या आश्रयों को छोड़ने के कारण 'राहूगण' होता है, 'त्यागियों में गिनने योग्य' ।
भावार्थ -
हम इस तत्त्व का मनन करें कि 'हमारे सच्चे सखा प्रभु ही हैं ।
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