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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1547
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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कृ꣣ष्णां꣡ यदेनी꣢꣯म꣣भि꣡ वर्प꣢꣯सा꣣भू꣢ज्ज꣣न꣢य꣣न्यो꣡षां꣢ बृह꣣तः꣢ पि꣣तु꣢र्जाम् । ऊ꣣र्ध्वं꣢ भा꣣नु꣡ꣳ सूर्य꣢꣯स्य स्तभा꣣य꣢न्दि꣣वो꣡ वसु꣢꣯भिरर꣣ति꣡र्वि भा꣢꣯ति ॥१५४७

स्वर सहित पद पाठ

कृ꣣ष्णा꣢म् । यत् । ए꣡नी꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । व꣡र्प꣢꣯सा । भूत् । ज꣣न꣡य꣢न् । यो꣡षा꣢꣯म् । बृ꣣हतः꣢ । पि꣣तुः꣢ । जाम् । ऊ꣣र्ध्व꣢म् । भा꣣नु꣢म् । सू꣡र्य꣢꣯स्य । स्त꣣भाय꣡न् । दि꣣वः꣢ । व꣡सु꣢꣯भिः । अ꣣रतिः꣡ । वि । भा꣣ति ॥१५४७॥


स्वर रहित मन्त्र

कृष्णां यदेनीमभि वर्पसाभूज्जनयन्योषां बृहतः पितुर्जाम् । ऊर्ध्वं भानुꣳ सूर्यस्य स्तभायन्दिवो वसुभिररतिर्वि भाति ॥१५४७


स्वर रहित पद पाठ

कृष्णाम् । यत् । एनीम् । अभि । वर्पसा । भूत् । जनयन् । योषाम् । बृहतः । पितुः । जाम् । ऊर्ध्वम् । भानुम् । सूर्यस्य । स्तभायन् । दिवः । वसुभिः । अरतिः । वि । भाति ॥१५४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1547
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -

(प्रकृति-विजय – यत्) = जब मनुष्य (एनीम्) = इस रंग-बिरंगी - ‘लोहित, शुक्ल, कृष्णा' (कृष्णाम्) = तमोमयी होने से कृष्ण अथवा अपनी (वर्पसा) = चमक से आकृष्ट करनेवाली इस प्रकृति को (अभि अभूत्) = जीत लेता है, उस समय (अरतिः) = यह प्रकृति में न फँसनेवाला 'त्रित' (विभाति) = विशेषरूप से चमकता है ।

प्रकृति एनी है—रंग-बिरंगी है। अपने सत्त्व, रज व तमोगुणों के कारण 'लोहित, शुक्ल, कृष्णा’ है। अपने इस ‘वर्पसा'=चमकीले रूप से यह हमें अपनी ओर आकृष्ट कर रही है, अतएव यह ‘कृष्णा’ कहलाती है । इसके इसी चमकीलेरूप से हमारी आँखों से सत्य का रूप छिपा रहता है । जिस दिन हम प्रकृति प्रेम से ऊपर उठकर 'अ-रति' बनते हैं उसी दिन सत्य जीवनवाले बनकर हम चमक उठते हैं । अब प्रश्न यह है कि हम 'अ-रति' कैसे बन पाते हैं ? वेद उत्तर देता है कि

(वेदवाणी का विकास – बृहतः पितुः)उस बृहत् पिता-परमपिता परमात्मा से (जाम्)=उत्पन्न हुई-हुई इस (योषाम्)-वेदवाणी को [योषा वै वाक् – श० १.४.४.४] (जनयन्)= अपने में प्रकट करता है, अर्थात् जब एक व्यक्ति वेदवाणी को अपने अन्दर विकसित करता है तब वह प्रकृति के आकर्षण को जीत कर ‘अ-रति' बन पाता है । वेदवाणी 'योषा' है- यह मनुष्य को पुण्य से जोड़ती है [युमिश्रणे] तथा पाप से पृथक् [यु-अमिश्रणे] करती है ।

(मस्तिष्क में सूर्य की दीप्ति) – यह 'अरति' वेदवाणी के अध्ययन से निरन्तर अपनी दीप्ति को बढ़ाता चलता है और एक दिन इसके जीवन में वह आता है जब (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य के समान देदीप्यमान वेदवाणी के प्रकाश को (ऊर्ध्वं स्तभायन्) = ऊपर मस्तिष्करूप द्युलोक में धारण करता हुआ यह अ- रति (दिवः वसुभिः) = दिव्य गुणों की सम्पत्तियों से, अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त हुआहुआ (विभाति) = विशेष ही शोभावाला होता है ।

भावार्थ -

वेदवाणी के अध्ययन से प्रकृति पर विजय पाकर हम ज्ञान की दीप्ति को धारण करें तथा दिव्य गुणों से दीप्त हो उठें ।

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