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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1601
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ऊ꣣र्ध्व꣡स्ति꣢ष्ठा न ऊ꣣त꣢ये꣣ऽस्मि꣡न्वाजे꣢꣯ श꣢त꣣क्र꣡तो꣢ । स꣢म꣣न्ये꣡षु꣢ ब्रवावहै ॥१६०१॥

स्वर सहित पद पाठ

ऊ꣣र्ध्वः꣢ । ति꣣ष्ठ । नः । ऊत꣡ये꣢ । अ꣢स्मि꣢न् । वा꣡जे꣢꣯ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । स꣢म् । अ꣣न्ये꣡षु꣢ । अ꣣न् । ये꣡षु꣢꣯ । ब्र꣣वावहै ॥१६०१॥


स्वर रहित मन्त्र

ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो । समन्येषु ब्रवावहै ॥१६०१॥


स्वर रहित पद पाठ

ऊर्ध्वः । तिष्ठ । नः । ऊतये । अस्मिन् । वाजे । शतक्रतो । शत । क्रतो । सम् । अन्येषु । अन् । येषु । ब्रवावहै ॥१६०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1601
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

पिछले मन्त्र में प्रभु ने शुनः शेप को वीर= शत्रुओं को कम्पित करनेवाला कहा था, अत: ‘शुन:शेप' प्रभु से कहता है कि हे शतक्रतो-अनन्त प्रज्ञान व कर्मवाले प्रभो ! अस्मिन् वाजे=इस संग्राम में— कामादि शत्रुओं से चल रहे युद्ध में नः ऊतये हमारी रक्षा के लिए ऊर्ध्वः तिष्ठ-आप हमारे ऊपर स्थित होते हैं। आपकी छत्रछाया में ही तो हम विजय पा सकते हैं। आपका वरद हस्त हमपर न हो तो विजय सम्भव नहीं? इस युद्ध में मैंने आपकी कृपा से विजय पायी । मेरी प्रार्थना यह है कि अन्येषु=अन्य संग्रामों में भी हम संब्रावहै- मिलकर बातचीत कर सकें। मैं हृदयस्थ आपके मन्त्र को सूनूँ और तदनुसार ही कार्य करता हुआ विजय पानेवाला बनूँ।

हे प्रभो! जब-जब संग्राम का अवसर हो तब-तब मैं आपसे संलाप करनेवाला बनूँ और आपके निर्देश को जान पाऊँ और उसी मार्ग पर चलता हुआ सचमुच 'राधानां पति'=सफलता का स्वामी होऊँ ।

भावार्थ -

हमें विजय सदा प्रभु-कृपा से ही प्राप्त होती है। हम हृदयस्थ प्रभु से संवाद करनेवाले बनें ।

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