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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 161
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥१६१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡द꣢꣯म् ॥१६१॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥१६१॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥१६१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 161
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ‘त्रिशोक काण्व' है। इसके मस्तिष्क, मन व शरीर [त्रि] तीनों ही [शोक] दीप्त हैं [शुच् दीप्तौ] । इसने अपने जीवन को इस प्रकार चलाया है कि यह शारीरिक, मानस व बौद्धिक सभी प्रकार की उन्नतियाँ करने में समर्थ हुआ है। यह बुद्धिमत्ता से अपने जीवन को चलाने के कारण 'काण्व' है। यह प्रभु को अपना पूर्ण हितचिन्तक व हितसाधक मानता हुआ कहता है कि (वृषभ) = हे सब सुखों के वर्षक प्रभो ! (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (त्वा अभि) = तेरी ओर देखकर ही मैं सब कार्य करता हूँ। ‘प्रभु ने किन-किन कार्यों के लिए स्वीकृति दी है, इस विषय का विचार करने पर यह स्पष्ट है कि प्रभु का प्रथम आदेश ज्ञान-प्राप्ति के लिए है। प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान ही दिया और मनुष्य का नाम भी ‘ज्ञान-प्राप्त करनेवाला' ही रक्खा, अतः यह काण्व कहता है कि (पीतये) = मैं अपनी रक्षा के लिए (सुतम्) = ज्ञान को (सृजामि) = अपने में उत्पन्न करता हूँ। ज्ञान का नाम 'सुतम् ' इसलिए है कि इसे विद्यार्थी को आचार्य से इसी प्रकार निकालना होता है जैसे हम गन्ने से रस प्राप्त करते हैं। आचार्य से इसे निकालने के उपाय ('प्रणिपातेन सेवया') = नम्रता व सेवा है। काण्व प्रभु के निर्देशानुसार सर्वप्रथम ज्ञान का सवन करता है। ज्ञान से उसका मस्तिष्क जगमगा जाता है।

यह काण्व अपने को प्रेरणा देता हुआ कहता है कि तृम्प हे मेरे मन! तू सदा (तृप्त) = रह । 'मन को सन्तुष्ट रखना' यही प्रभु की दूसरी आज्ञा है। इसी को सन्तोष कहते हैं कि 'प्रयत्न में कमी न रखना, फल के लिए ललचाना नहीं'। यही आस्तिकता है - प्रभु से की जा रही व्यवस्था में कभी असन्तुष्ट न होना। इसका परिणाम यह होता है कि मन लोभादि आसुर वृत्तियों से रहित होकर निर्मल हो जाता है और चमक उठता है।

प्रभु के तीसरे निर्देश के अनुसार काण्व की आत्मप्रेरणा यह है कि व्यश्नुही मदम्=[मद= semen virile] तू अपनी वीर्य-शक्ति को शरीर में ही व्याप्त कर। इसे नष्ट न होने दे। एवं, शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों को श्री - शोचि - सम्पन्न बनाकर यह सचमुच 'त्रिशोक' बन जाता है।

भावार्थ -

ज्ञानप्राप्ति के द्वारा मस्तिष्क को, सन्तोष की वृत्ति से मन को, और वीर्य को शरीर में व्याप्त कर हम शरीर को श्री- सम्पन्न बनाएँ।

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