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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1612
ऋषिः - पर्वतनारदौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
1
स꣡ नो꣢ हरीणां पत꣣ इ꣡न्दो꣢ दे꣣व꣡प्स꣢रस्तमः । स꣡खे꣢व꣣ स꣢ख्ये꣣ न꣡र्यो꣢ रु꣣चे꣡ भ꣢व ॥१६१२॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । नः꣣ । हरीणाम् । पते । इ꣡न्दो꣢꣯ । दे꣣व꣡प्स꣢रस्तमः । दे꣣व꣢ । प्स꣣रस्तमः । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । इव । स꣡ख्ये꣢꣯ । स । ख्ये꣣ । न꣡र्यः꣢꣯ । रु꣣चे꣢ । भ꣣व ॥१६१२॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो हरीणां पत इन्दो देवप्सरस्तमः । सखेव सख्ये नर्यो रुचे भव ॥१६१२॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । नः । हरीणाम् । पते । इन्दो । देवप्सरस्तमः । देव । प्सरस्तमः । सखा । स । खा । इव । सख्ये । स । ख्ये । नर्यः । रुचे । भव ॥१६१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1612
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - पर्वत व नारद
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि (सः) = वह तू (नः) = हमारी (रुचे भव) = शोभा के लिए हो । पुत्र तभी पिता की शोभा के लिए होता है जब वह योग्य प्रमाणित होता है, सुपुत्र वही है जिससे वंश उज्ज्वल हो। एवं, प्रभु की महिमा सन्त प्रवृत्ति के लोगों में ही दीखती है, अत: हमारा जीवन प्रभु की शोभा को बढ़ानेवाला हो सकता है, जबकि - -
१. (हरीणां पते) = मानव शरीर में हम इन्द्रियों के पति बनें । ये इन्द्रियाँ हरि-हमें विषयों में हृत करनेवाली हैं। ये हमें घसीटकर न जाने कहाँ ले जाएँगी । हम प्रभु के प्रिय तभी बनेंगे जब इन इन्द्रियाश्वों को वश में कर लेंगे ।
२. हे (इन्दो) = हम इन्द्रियों को काबू करके विषयों का शिकार न होने से दृढ़ शरीरवाले [strong] बनें । निर्बल प्रभु की शोभा को नहीं बढ़ाता ।
३. (देव-प्सरस्-तमः) = देवताओं में भी हम सर्वाधिक दीप्तिवाले बनें । [प्सरस्-दीप्त] अपने ज्ञान को निरन्तर बढ़ाते हुए हम देवों के अग्रणी बनने का प्रयत्न करें । ज्ञानस्वरूप प्रभु के प्रिय हम ज्ञान को प्राप्त करके ही हो सकेंगे।
४. (सखा सख्ये इव नर्य:) = जैसे एक मित्र मित्र का हित करनेवाला होता है, उसी प्रकार तू मनुष्यमात्र का हित करनेवाला बन । प्राणिमात्र का हित करनेवाले प्रभु के हम और किस प्रकार प्रिय हो सकते हैं ?
इस प्रकार प्रभुभक्त अपना पूरण करते हैं। अपनी कमियों को दूर करने का प्रयत्न करते हुए ये 'पर्वत' हैं और नरसमूह के हित के लिए अपने को दे डालनेवाले ये 'नारद' हैं [नार-द]।
भावार्थ -
प्रभु की शोभा हमारे जीवनों से तभी बढ़ सकती है जब हम १. इन्द्रियों के पति बनें, २. शक्तिशाली हों, ३. उच्च ज्ञान को प्राप्त करके देवताओं में भी प्रथम बनें तथा ४. मनुष्यमात्र का इस प्रकार हित करनेवाले बनें, जैसे मित्र - मित्र का हित करता है।
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