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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1626
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - विष्णुः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
4
प्र꣡ तत्ते꣢꣯ अ꣣द्य꣡ शि꣢पिविष्ट ह꣣व्य꣢म꣣र्यः꣡ श꣢ꣳसामि व꣣यु꣡ना꣢नि वि꣣द्वा꣢न् । तं꣡ त्वा꣢ गृणामि त꣣व꣢स꣣म꣡त꣢व्या꣣न्क्ष꣡य꣢न्तम꣣स्य꣡ रज꣢꣯सः परा꣣के꣢ ॥१६२६॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । ते꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । शि꣣पिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्य꣢म् । अ꣣र्यः꣢ । श꣣ꣳसामि । व꣡युना꣢नि । वि꣣द्वा꣢न् । तम् । त्वा꣣ । गृणामि । तव꣡स꣢म् । अ꣡त꣢꣯व्यान् । अ । त꣣व्यान् । क्ष꣡य꣢꣯न्तम् । अ꣣स्य꣢ । र꣡ज꣢꣯सः । प꣣राके꣢ ॥१६२६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तत्ते अद्य शिपिविष्ट हव्यमर्यः शꣳसामि वयुनानि विद्वान् । तं त्वा गृणामि तवसमतव्यान्क्षयन्तमस्य रजसः पराके ॥१६२६॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । तत् । ते । अद्य । अ । द्य । शिपिविष्ट । शिपि । विष्ट । हव्यम् । अर्यः । शꣳसामि । वयुनानि । विद्वान् । तम् । त्वा । गृणामि । तवसम् । अतव्यान् । अ । तव्यान् । क्षयन्तम् । अस्य । रजसः । पराके ॥१६२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1626
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - कर्तृत्व में भी अकर्तृत्व
पदार्थ -
हे (शिपिविष्ट) = किरणों में प्रविष्ट, अर्थात् ज्ञानमय प्रभो! (अद्य) = आज (वयुनानि) = तेरे सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयादि कर्मों का (विद्वान्) = विचार करनेवाला (अर्यः) = इन्द्रियों को वश में करनेवाला मैं (ते) = तेरे (तत्) = उस (हव्यम्) =[आह्वातव्यम्] पुकारने योग्य रूप का (प्रशंसामि) = खूब उच्चारण करता हूँ, अर्थात् मैं आपका खूब स्मरण करता हूँ।
(अतव्यान्) = निर्बल मैं (तम्) = उस (तवसम्) = बल के पुञ्ज (त्वाम्) = आपको (गृणामि) = स्तुत करता हूँ । आपकी स्तुति से मुझमें भी बल का संचार होता है। आप (अस्य रजस:) = इस सम्पूर्ण रजस् के (पराके) = परे – दूर देश में (क्षयन्तम्) = निवास कर रहे हैं । प्रभु इस सारे निर्माणादि कार्यों को करते हैं, परन्तु इन कार्यों को करते हुए भी वे इनसे परे हैं—इनमें वे फँसे हुए नहीं हैं । कर्त्ता होते हुए भी वे अकर्त्ता ही हैं। इस रजोगुण में न उलझने से ही वे शक्तिशाली बने हैं । रजोगुण में न उलझने का कारण उनका ‘शिपिविष्ट' होना है। वे ज्ञानपुञ्ज हैं, अतः आसक्ति से परे हैं ।
इस रूप में प्रभु का स्तवन करनेवाला व्यक्ति भी कर्त्ता होते हुए अकर्त्ता बन पाता है। आसक्ति को जीतकर मन पर प्रभुत्व स्थापित करनेवाला यह इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ' होता है । प्रभु का स्तोता बनने के लिए आवश्यक है कि हम -
१. प्रभु के सृष्टि- निर्माणादि कार्यों पर विचार करें तथा २. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करें। विचारक और संयमी ही प्रभु का स्तोता बन पाता है।
भावार्थ -
प्रभु के तेजोमय रूप का चिन्तन कर हम भी तेजस्वी बनें ।
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