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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1632
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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त꣡म꣢स्य मर्जयामसि꣣ म꣢दो꣣ य꣡ इ꣢न्द्र꣣पा꣡त꣢मः । यं꣡ गाव꣢꣯ आ꣣स꣡भि꣢र्द꣣धुः꣢ पु꣣रा꣢ नू꣣नं꣡ च꣢ सू꣣र꣡यः꣢ ॥१६३२॥

स्वर सहित पद पाठ

तम् । अ꣣स्य । मर्जयामसि । म꣡दः꣢꣯ । यः । इ꣣न्द्रपा꣡त꣢मः । इ꣣न्द्र । पा꣡त꣢꣯मः । यम् । गा꣡वः꣢꣯ । आ꣣स꣡भिः꣢ । द꣣धुः꣢ । पु꣣रा꣢ । नू꣣न꣢म् । च꣣ । सूर꣡यः꣢ ॥१६३२॥


स्वर रहित मन्त्र

तमस्य मर्जयामसि मदो य इन्द्रपातमः । यं गाव आसभिर्दधुः पुरा नूनं च सूरयः ॥१६३२॥


स्वर रहित पद पाठ

तम् । अस्य । मर्जयामसि । मदः । यः । इन्द्रपातमः । इन्द्र । पातमः । यम् । गावः । आसभिः । दधुः । पुरा । नूनम् । च । सूरयः ॥१६३२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1632
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

‘सोम' शरीर में सर्वोत्तम रक्षक है । यह शरीर को नीरोग रखता है, मन को निर्मल करता है और बुद्धि को तीव्र बनाता है । वस्तुतः यह जीवन का आधार है । इसके अभाव में तो मृत्यु ही है,
इसीलिए इसे यहाँ ‘इन्द्र-पात-मः'=जीवात्मा का सर्वोत्तम रक्षक कहा गया है। यह जीवन में उल्लास लानेवाला है, अत: इसे मदः – हर्षजनक कहा है। हम (अस्य) = इस जीव के (तम्) = उस सोम को (मर्जयामसि) = शुद्ध करते हैं (यः) = जो (मदः) = उल्लास को देनेवाला तथा (इन्द्रपातमः) = जीवात्मा का सर्वाधिक रक्षक है। (यः) = जिसको (गावः) = ज्ञानेन्द्रियाँ (आसभिः) = [असनम्=आसः] शत्रुओं के काम-क्रोधादि के प्रक्षेपण के हेतु से (दधुः) = धारण करती हैं । जितना जितना मनुष्य ज्ञान-प्राप्ति में प्रवृत्त होता है, उतना उतना ही सोम-रक्षण सम्भव होता है और मनुष्य वासनाओं के विनाश व दूर फेंकने में समर्थ होता है। ज्ञान-प्राप्ति एक ऐसा व्यसन है जो अन्य सब व्यसनों को नष्ट कर देता है।

(च) = और (सूरयः) = विद्वान् विवेकी समझदार लोग (नूनम्) = शीघ्र ही [now, immediately] पुरा= आत्मरक्षा के लिए [for the defence of] दधुः = इस सोम को धारण करते हैं । वेद में 'पुरा' शब्द का अर्थ ‘रक्षा के लिए' होता है - यही अर्थ यहाँ सङ्गत है । विवेकशील पुरुष श्रेय और प्रेय का अन्तर समझकर सोम का विनियोग क्षणिक प्रेय के लिए न करके स्थायी श्रेय के लिए ही करता है और सोम की रक्षा में अत्यन्त सावधान हो जाता है। सोम की रक्षा यह 'ज्ञानेन्द्रियों के मुख' से ही कर पाता है, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों को सदा ज्ञान-प्राप्ति में लगाये रखकर ही सोम की रक्षा सम्भव होती है।

भावार्थ -

ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति में लगाये रखकर ही हम सोम की रक्षा कर पाते हैं ।

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