Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1637
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
2

त्व꣡मि꣢न्द्र꣣ प्र꣡तू꣢र्तिष्व꣣भि꣡ विश्वा꣢꣯ असि꣣ स्पृ꣡धः꣢ । अ꣣शस्तिहा꣡ ज꣢नि꣣ता꣡ वृ꣢त्र꣣तू꣡र꣢सि꣣ त्वं꣡ तू꣢र्य तरुष्य꣣तः꣢ ॥१६३७॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । इ꣣न्द्र । प्र꣡तू꣢꣯र्तिषु । प्र । तू꣣र्तिषु । अभि꣢ । वि꣡श्वाः꣢ । अ꣣सि । स्पृ꣡धः꣢꣯ । अ꣣शस्तिहा꣢ । अ꣣शस्ति । हा꣢ । ज꣣निता꣢ । वृ꣣त्रतूः꣢ । वृ꣣त्र । तूः꣢ । अ꣣सि । त्व꣡म् । तू꣣र्य । तरुष्यतः꣢ ॥१६३७॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृधः । अशस्तिहा जनिता वृत्रतूरसि त्वं तूर्य तरुष्यतः ॥१६३७॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । इन्द्र । प्रतूर्तिषु । प्र । तूर्तिषु । अभि । विश्वाः । असि । स्पृधः । अशस्तिहा । अशस्ति । हा । जनिता । वृत्रतूः । वृत्र । तूः । असि । त्वम् । तूर्य । तरुष्यतः ॥१६३७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1637
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -

संख्या ३११ पर इस मन्त्र का अर्थ इस रूप में है— प्रभु जीव से कहते हैं कि इन्द्र हे इन्द्रियों के अधिष्ठता जीव ! (त्वम्) = तू (प्रतूर्तिषु) = अध्यात्म संग्रामों में (विश्वाः स्पृधः) = सब स्पर्धा करनेवाली कामादि वृत्तियों को (अभि असि) = जीत लेता है । (अशस्तिहा) = अशुभ का तू नाश करनेवाला है । जनिता- विकासशील है (वृत्रतू: असि) = मार्ग में आनेवाली सब रुकावटों को समाप्त करनेवाला है। (तरुष्यतः) = हिंसा करनेवाली इन अशुभ वृत्तियों को (त्वम्) = तू (तूर्य) = समाप्त कर डाल।

भावार्थ -

हम प्रभु की इस उत्साहपूर्ण प्रेरणा को सुनें और कामादि शत्रुओं का विध्वंस करके आगे बढ़ें। 

इस भाष्य को एडिट करें
Top