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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1643
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
यु꣣ध्म꣡ꣳ सन्त꣢꣯मन꣣र्वा꣡ण꣢ꣳ सोम꣣पा꣡मन꣢꣯पच्युतम् । न꣡र꣢मवा꣣र्य꣡क्र꣢तुम् ॥१६४३॥
स्वर सहित पद पाठयु꣣ध्म꣢म् । स꣡न्त꣢꣯म् । अ꣣नर्वा꣡ण꣢म् । अ꣣न् । अर्वा꣡ण꣢म् । सो꣣मपा꣢म् । सो꣣म । पा꣢म् । अ꣡न꣢꣯पच्युतम् । अन् । अ꣣पच्युतम् । न꣡र꣢꣯म् । अ꣣वार्य꣡क्र꣢तुम् । अ꣡वा꣢꣯र्य । क्र꣣तुम् ॥१६४३॥
स्वर रहित मन्त्र
युध्मꣳ सन्तमनर्वाणꣳ सोमपामनपच्युतम् । नरमवार्यक्रतुम् ॥१६४३॥
स्वर रहित पद पाठ
युध्मम् । सन्तम् । अनर्वाणम् । अन् । अर्वाणम् । सोमपाम् । सोम । पाम् । अनपच्युतम् । अन् । अपच्युतम् । नरम् । अवार्यक्रतुम् । अवार्य । क्रतुम् ॥१६४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1643
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - कैसे प्रभु का आवाहन ?
पदार्थ -
गत मन्त्र में प्रभु को अपने में अवतीर्ण करने का प्रसङ्ग था। उसी प्रसङ्ग को प्रस्तुत मन्त्र में इस रूप में कहते हैं— उस प्रभु का अपने में आवाहन करो जो
१. (युध्मम् ) = [warlike, martial] युद्धप्रिय हैं। प्रभु बुराई को दूर करने में, जीव की उन्नति के लिए, निरन्तर प्रेरणादि द्वारा प्रवृत्त हैं । जो भी जीव बुराई के साथ संघर्ष करके उसे दूर करता है वह प्रभु का प्रिय होता है। जैसे यज्ञों से प्रभु की उपासना होती है इसी प्रकार युद्धों से भी प्रभु पूजित होते हैं।(‘इत्थं युद्धैश्च यज्ञैश्च भजामो विष्णुमीश्वरम्') ।
२. (सन्तम्) = जो प्रभु सत् हैं— श्रेष्ठ-ही- श्रेष्ठ हैं। प्रभु के उपासक को भी श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करना है।
३. (अनर्वाणम्) = प्रभु का किसी से द्वेष [not inimical] नहीं । प्रभुभक्त भी द्वेष से ऊपर उठकर बुराई को दूर करने में लगा रहता है और (सर्वभूतहिते रतः) = होता है।
४. (सोमपाम्) = वे प्रभु सोम की रक्षा करते हैं अथवा विनीत पुरुष का रक्षण करते हैं । प्रभुस्मरण द्वारा वासनाओं को भगाकर हम अपनी शक्ति को सुरक्षित कर पाते हैं और शक्ति के साथ नम्रता को धारण करते हुए प्रभु की रक्षा के पात्र बने रहते हैं ।
५. (अनपच्युतम्) = जो प्रभु कभी नष्ट नहीं होते । प्रभुभक्त भी धर्म के मार्ग से अपच्युत नहीं होता ।
६. (नरम्) = वे प्रभु नर हैं, सब मनुष्यों को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले हैं। भक्त ने भी तो स्वयं अपने को तथा अन्यों को उन्नति-पथ पर ले चलना है ।
७. (अवार्यक्रतुम्) = उस प्रभु का संकल्प अवार्य है- किसी से रोका नहीं जा सकता। प्रभुभक्त भी ‘अवार्यक्रतु' हुआ करता है । उसको उसके दृढ़ निश्चय से मृत्युभय भी हटा नहीं पाता । प्रभु का उल्लिखितरूप में आवाहन करता हुआ मन्त्र का ऋषि ‘सुकक्ष'=[उत्तम शरणवाला] भी अपने जीवन को युध्मादि विशेषणोंवाला बनाता है। सच्ची भक्ति तदनुरूप बनना ही तो है ।
भावार्थ -
प्रभु को युध्मादि रूपों में स्मरण करता हुआ मैं भी युध्मादि विशेषण-विशिष्ट जीवनवाला बनूँ ।
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