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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1673
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त꣡द्विप्रा꣢꣯सो विप꣣न्य꣡वो꣢ जागृ꣣वा꣢ꣳसः꣢ स꣡मि꣢न्धते । वि꣢ष्णो꣣र्य꣡त्प꣢र꣣मं꣢ प꣣द꣢म् ॥१६७३॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣢त् । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । विपन्य꣡वः꣢ । जा꣣गृवा꣡ꣳसः꣢ । सम् । इ꣣न्धते । वि꣡ष्णोः꣢꣯ । यत् । प꣣रम꣢म् । प꣣द꣢म् ॥१६७३॥


स्वर रहित मन्त्र

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवाꣳसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥१६७३॥


स्वर रहित पद पाठ

तत् । विप्रासः । वि । प्रासः । विपन्यवः । जागृवाꣳसः । सम् । इन्धते । विष्णोः । यत् । परमम् । पदम् ॥१६७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1673
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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पदार्थ -

(विष्णोः) = उस सर्वव्यापक प्रभु का (यत्) = जो (परमं पदम्) = सर्वोत्कृष्टरूप है (तत्) = उस रूप को (समिन्धते) = अपने अन्दर समिद्ध करते हैं, उस रूप का दर्शन करते हैं । कौन ?

१. (विप्रासः) = [वि-प्रा= -पूरणे] विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले लोग। वे लोग जो आत्माचोलन के द्वारा अपनी कमियों को जानकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

२. (वि-पन्यवः) = जो विशिष्टि स्तुतिवाले हैं । प्रभु की श्रव्य भक्ति, अर्थात् कीर्तन, नाम-स्मरणादि भी अपना महत्त्व रखते ही हैं, परन्तु ' आसक्ति को छोड़कर सर्वभूतहित में लगने का प्रयत्न करना'— यही उस प्रभु की विशिष्ट स्तुति है । ये विशिष्ट स्तोता ही प्रभु का निरूपण कर पाते हैं । 

३. (जागृवांसः) = जो जागनेवाले हैं। जो अपने स्वरूप व कर्त्तव्य में मोह-निद्रा में सोये हुए नहीं हैं । जो अपने कर्त्तव्यों को स्पष्टरूप में देखते हैं और उनका आचरण करते हैं ।

ये तीन व्यक्ति अपने अन्दर उस परमपद का समिन्धन करते हैं - दूसरे शब्दों में ये भी उस विष्णु-जैसे ही बन जाते हैं । विष्णु-जैसा बनना ही तो विष्णु की परमभक्ति है। 

भावार्थ -

हम अपनी न्यूनताओं को दूर करें, सर्वभूतहित में लगकर प्रभु के विशिष्ट स्तोता बनें, और सदा जाग्रत् व सावधान रहें।

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