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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1679
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ पा꣡त꣢वे वृत्र꣣घ्ने꣡ परि꣢꣯ षिच्यसे । न꣡रे꣢ च꣣ द꣡क्षि꣢णावते वी꣣रा꣡य꣢ सदना꣣स꣡दे꣢ ॥१६७९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । पा꣡त꣢꣯वे । वृ꣣त्रघ्ने꣡ । वृ꣣त्र । घ्ने꣣ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । न꣡रे꣢꣯ । च꣣ । द꣡क्षि꣢꣯णावते । वी꣣रा꣡य꣣ । स꣣दनास꣡दे꣢ । स꣣दन । स꣡दे꣢꣯ ॥१६७९॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते वीराय सदनासदे ॥१६७९॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्राय । सोम । पातवे । वृत्रघ्ने । वृत्र । घ्ने । परि । सिच्यसे । नरे । च । दक्षिणावते । वीराय । सदनासदे । सदन । सदे ॥१६७९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1679
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

(सोम) = हे वीर्यशक्ते! तू (इन्द्राय पातवे) = इन्द्र के पान के लिए होता है । जितेन्द्रिय पुरुष ही तेरा पान करता है। सोम को शरीर में ही व्याप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य जितेन्द्रिय बने । हे सोम! तू (परिषिच्यसे) = शरीर में ही सर्वत्र सिक्त होता है । किनके लिए ? १. (वृत्र-घ्ने) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं को नष्ट करनेवाले के लिए, अर्थात् जो मनुष्य कामादि वासनाओं को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील होता है उसके शरीर में यह सोम सम्पूर्ण रुधिर में व्याप्त होकर रहता है । २. (नरे च) = और [नृ= मनुष्य] उस मनुष्य के लिए जो अपने को आगे और आगे ले चलने का निश्चय करता है । यह आगे बढ़ने की भावना भी सोम-सुरक्षा में सहायक होती है। ३. (दक्षिणावते) = दानशील मनुष्य के लिए यह सोम परिषिक्त होता है, अर्थात् दान की वृत्ति भी सोमरक्षा में सहायक है। यह वृत्ति मनुष्य को व्यसनों से बचाती है। व्यसनों से बचाने के द्वारा सोम-रक्षण में साधन बनती है। ४. (वीराय) = वीर पुरुष के लिए । वीर पुरुष अपनी वीरता को नष्ट न होने देने के लिए सोमरक्षण में प्रवृत्त होता है । ५. (सदनासदे) = सदन में बैठनेवाले के लिए। यहाँ सदन शब्द ‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत' इस मन्त्रभाग की ‘सीदत' क्रिया का ध्यान करते हुए सब घरवालों के मिलकर बैठने के स्थान, अर्थात् यज्ञभूमि के लिए आया है।‘इस यज्ञभूमि में बैठने का है स्वभाव जिसका' उसके लिए यह सोमरक्षण सम्भव होता है ।

यह सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति सदा सरल मार्ग से चलता है— दूसरे शब्दों में 'ऋजिश्वा' बनता है। यह ऋजिश्वा सोमरक्षण के लिए निम्न बातें करता है -

१. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करता है [इन्द्राय] । २. वासनाओं को विनष्ट करता है [वृत्रघ्ने]। ३. आगे बढ़ने की वृत्ति को धारण करता है [नरे] । ४. दानशील बनता है [दक्षिणावते] । ५. वीर बनता है [वीराय]। ६. यज्ञशील बनता है [सदनासदे]।

सोमरक्षण होने पर ये बातें हममें फूलती-फलती हैं। 

भावार्थ -

हम सोमरक्षण के द्वारा वीर बनें ।

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