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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1802
ऋषिः - सुदासः पैजवनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - शक्वरी
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
त्व꣢꣫ꣳ सिन्धू꣣ꣳर꣡वा꣢सृजोऽध꣣रा꣢चो꣣ अ꣢ह꣣न्न꣡हि꣢म् । अ꣣शत्रु꣡रि꣢न्द्र जज्ञिषे꣣ वि꣡श्वं꣢ पुष्यसि꣣ वा꣡र्य꣢म् । तं꣢ त्वा꣣ प꣡रि꣢ ष्वजामहे꣣ न꣡भ꣢न्तामन्य꣣के꣡षां꣢ ज्या꣣का꣢꣫ अधि꣣ ध꣡न्व꣢सु ॥१८०२॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । सि꣡न्धू꣢꣯न् । अ꣡व꣢꣯ । अ꣡सृजः । अधरा꣡चः꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । अ꣡हि꣢꣯म् । अ꣣शत्रुः꣢ । अ꣣ । शत्रुः꣢ । इ꣣न्द्रः । जज्ञिषे । वि꣡श्व꣢꣯म् । पु꣣ष्यसि । वा꣡र्य꣢꣯म् । तम् । त्वा꣣ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣जामहे । न꣡भ꣢꣯न्ताम् । अ꣣न्यके꣡षा꣢म् । अ꣣न् । यके꣡षा꣢म् । ज्या꣡काः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯सु ॥१८०२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ सिन्धूꣳरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम् । अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि वार्यम् । तं त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥१८०२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । सिन्धून् । अव । असृजः । अधराचः । अहन् । अहिम् । अशत्रुः । अ । शत्रुः । इन्द्रः । जज्ञिषे । विश्वम् । पुष्यसि । वार्यम् । तम् । त्वा । परि । स्वजामहे । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । अन् । यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वसु ॥१८०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1802
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु का आलिङ्गन
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि – १. (त्वम्) = तूने (अधराचः) = नीचे की ओर जानेवाले [अधर+अञ्च् ] (सिन्धून्) =[स्यन्दन्ते] जलों के अध्यात्मरूप रेत:कणों को (अवासृजः) = विषय-भोग का हेतु बनने से पृथक् किया है। ये रेत: कण अब ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसे उज्ज्वल करने में लगे हैं। २. (अहिम्) = तू ने [अहि=navel] संसार की नाभिभूत यज्ञ को [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] (अहन्) = प्राप्त किया है। विषय-भोगों से दूर हटकर तूने अपने जीवन को यज्ञमय बनाने का प्रयत्न किया है। ३. हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप ऐश्वर्यशाली जीव! तू यज्ञों में प्रवृत्त होकर (अशत्रुः) = कामादि शत्रुओं से रहित जज्ञिषे हो गया है। लोकहित में प्रवृत्त रहने से वैसे भी तेरा कोई शत्रु नहीं रहा । ४. इस यज्ञ प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ है कि (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय वस्तुओं का तू (पुष्यसि) = पोषण करनेवाला बना है। यज्ञ इहलोक व परलोक दोनों ही स्थानों में कल्याण करता है ।
प्रभु ऐसे ही जीव से प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर कहते हैं कि (तं त्वा) = उस तुझे (परिष्वजामहे) = आलिङ्गन करते हैं। प्रसन्न पिता जैसे पुत्र को गले लगा लेता है, उसी प्रकार उल्लिखित जीवनवाला व्यक्ति भी प्रभु के आलिङ्गन को प्राप्त करता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! (अन्यकेषाम्) = मेरे शत्रुओं की (ज्याका:) = डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = टूट जाएँ। उनका मुझपर आक्रमण न हो सके। जो व्यक्ति अपने को पूर्णरूप से प्रभु के प्रति दे डालता है, वह 'सुदा:' है और सदा क्रिया में लगे रहने से अपिजवन या पिजवन कहलाता है । यही प्रभु का प्रिय होता है और प्रभु का आलिङ्गन करता है ।
भावार्थ -
मैं वीर्य को भोग-साधन न बना यज्ञ- साधन बनाऊँ और प्रभु का प्रिय बनूँ।
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