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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1806
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
मा꣡ न꣢ इन्द्र पीय꣣त्न꣢वे꣣ मा꣡ शर्ध꣢꣯ते꣣ प꣡रा꣢ दाः । शि꣡क्षा꣢ शचीवः꣣ श꣡ची꣢भिः ॥१८०६॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । नः꣣ । इन्द्र । पीयत्न꣡वे꣢ । मा । श꣡र्ध꣢꣯ते । प꣡रा꣢꣯ । दाः꣣ । शि꣡क्ष꣢꣯ । श꣣चीवः । श꣡ची꣢꣯भिः ॥१८०६॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्र पीयत्नवे मा शर्धते परा दाः । शिक्षा शचीवः शचीभिः ॥१८०६॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । नः । इन्द्र । पीयत्नवे । मा । शर्धते । परा । दाः । शिक्ष । शचीवः । शचीभिः ॥१८०६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1806
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - हमारी खाने-पीने की ही दुनिया न हो
पदार्थ -
हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (नः) = हमें (पीयत्नवे) =[पीयते-drinks] =पीने में ही आनन्द लेनेवाले पुरुष के लिए (मा) = मत (परादा:) = अपने से दूर करके दे डालिए तथा (शर्धते) = जो खा-पीकर कुत्सित वायु को ही निकाल रहा है, उसके लिए भी (मा) = मत (परादा:) = दे डालिए, अर्थात् मेरा उठना-बैठना उन्हीं पुरुषों में न हो जिनकी दुनिया केवल खाने-पीने की है—जो खाते-पीते हैं और लेटे-लेटे कुत्सित शब्द ही करते रहते हैं । इनके सम्पर्क में रहकर मैं भी ऐसा ही न बन जाऊँ । वस्तुतः क्या यह मानव-जीवन है ? नहीं, कभी नहीं । यह तो पशुओं से भी गया- बीता जीवन है । हे प्रभो ! मुझे विषय-विलासमय इस तमोगुणी जीवन से ऊपर उठाइए । आप 'इन्द्र' हैं, आपका स्तोता बनकर मैं 'इन्द्रियों का अधिष्ठाता' बनूँ न कि 'इन्द्रियों का दास' ।
(शचीवः) = हे प्रभो! आप 'शचीवन्' हैं । नि० ३-३, १ - ११, २-१ 'प्रज्ञा-वाङ्-कर्म' के पति हैं। आप ज्ञानस्वरूप तो हैं ही, वेदवाणी के आप पति 'ब्रह्मणस्पति' व 'बृहस्पति' कहलाते हैं, आपके अन्दर स्वाभाविक क्रिया है । हे शचीवन् ! मुझे भी (शचीभिः) = प्रज्ञा, वेदवाणियों व वेदानुकूल कर्मों से शिक्ष=शिक्षित व शक्ति-सम्पन्न कीजिए। मैं प्रज्ञावाला होकर वेदवाणी का अध्ययन करूँ, वेदानुकूल कर्मों में अपने जीवन का यापन करूँ और इस प्रकार मेरा जीवन सात्त्विक हो ।
भावार्थ -
मैं खाने-पीने की ही दुनिया में न विचर कर बुद्धि, ज्ञान व कर्म के क्षेत्र में विचरण करूँ ।
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