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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1825
ऋषिः - अग्निः प्रजापतिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

अ꣣ग्नि꣡रिन्द्रा꣢꣯य पवते दि꣣वि꣢ शु꣣क्रो꣡ वि रा꣢꣯जति । म꣡हि꣢षीव꣣ वि꣡ जा꣢यते ॥१८२५

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । दिवि꣢ । शु꣣क्रः꣢ । वि । रा꣣जति । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । वि꣢ । जा꣣यते ॥१८२५॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निरिन्द्राय पवते दिवि शुक्रो वि राजति । महिषीव वि जायते ॥१८२५


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । इन्द्राय । पवते । दिवि । शुक्रः । वि । राजति । महिषी । इव । वि । जायते ॥१८२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1825
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

सम्पूर्ण संसार के संचालक वे प्रभु ‘अग्नि' हैं—‘अग्रेणी: ' हैं, वे सभी को आगे और आगे लेचल रहे हैं। सम्पूर्ण संसार में वे व्याप्त हैं— सब स्थानों में पहले से ही प्राप्त हैं, अतः स्वयं गतिशून्य -होते हुए भी वे सारे ब्रह्माण्ड को गति दे रहे हैं। (‘तदेजति तन्नैजति') = वे स्वयं कूटस्थ हैं, परन्तु सबको कम्पित कर रहे हैं, परन्तु प्रभु में ये सारी क्रिया क्यों हैं? वे तो आप्त काम हैं, फिर वे किस कामना की पूर्ति के लिए गति कर रहे हैं ? मन्त्र में कहते हैं कि (अग्निः) = गति के स्रोत वे प्रभु (इन्द्राय) = जीव के लिए - जीव के हित के लिए (पवते) = गति कर रहे हैं। प्रभु की सारी क्रिया जीवहित के लिए है।

वे प्रभु स्वयं तो (शुक्रः) = शुद्ध – दीप्तरूप हैं, वे अपने (दिवि) = द्योतनात्मकरूप में (विराजति) = शोभायमान हैं। ये सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के द्योतमानरूप में अविकृतरूप से विद्यमान है [पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ] ।

प्रभु से अधिष्ठित यह प्रकृति (महिषी इव) = महिषी के समान (विजायते) = विविध पदार्थों को जन्म देती है। जैसे पत्नी घर को धारण करने के लिए आवश्यक पदार्थों का निर्माण करने में लगी रहती है उसी प्रकार परमेश्वर से अधिष्ठित हुई हुई प्रकृति जीवहित के लिए विविध आवश्यक पदार्थों को जन्म देती है ।

प्रभु पिता है और प्रकृति माता । ये प्रकृति माता महिषी और प्रभु 'शुक्र' हैं । यह प्रकृति प्रभु की योनि है। इसमें वे ‘शुक्र' प्रभु बीज का आधान करते हैं और चराचर जगद्रूप सन्तान का जन्म होता है।

एवं, प्रभु स्वयं निर्विकार होते हुए भी जीवहित के लिए प्रकृति द्वारा विविध पदार्थों को जन्म दिला रहे हैं। प्रभु की चेष्टा जीव के लिए है, न कि अपने लिए । प्रभु का भक्त भी यह अनुभव करता हुआ यत्न करता है कि उसकी प्रवृत्ति प्रजाहित के लिए हो, स्वार्थ के लिए नहीं । प्रभु की सृष्टि भी उसे यही उपदेश देती प्रतीत होती है, क्योंकि (“स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा:") = वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाते । ('पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भ:) = नदियाँ अपने पीने के लिए पानी प्रवाहित नहीं करतीं, ('नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः') = बादल निश्चय से स्वयं अनाज को नहीं खाते। इन बातों को देखकर यह प्रभुभक्त भी 'प्रजापति' बनता है और इसी कारण उन्नति करते-करते सचमुच 'अग्नि' बन जाता है । इस प्रकार इन्द्र [जीव] ने अग्नि [ब्रह्म] बनना है यही उसके जीवन का ध्येय हो । प्रजाहित के लिए प्रवृत्त होता हुआ वह उलझे नहीं—अपने ज्ञानमयस्वरूप में दीप्त रहने का ध्यान करें । ।

भावार्थ -

प्रजाहित में लगा हुआ व्यक्ति ही सच्चा प्रभुभक्त है।
 

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