Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1827
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
3

अ꣣ग्नि꣡र्जा꣢गार꣣ त꣡मृचः꣢꣯ कामयन्ते꣣ऽग्नि꣡र्जा꣢गार꣣ त꣢मु꣣ सा꣡मा꣢नि यन्ति । अ꣣ग्नि꣡र्जा꣢गार꣣ त꣢म꣣य꣡ꣳ सोम꣢꣯ आह꣣ त꣢वा꣣ह꣡म꣢स्मि स꣣ख्ये꣡ न्यो꣢काः ॥१८२७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । जा꣣गार । त꣢म् । ऋ꣡चः꣢꣯ । का꣣मयन्ते । अग्निः꣢ । जा꣣गार । त꣢म् । उ꣣ । सा꣡मा꣢꣯नि । य꣣न्ति । अग्निः꣢ । जा꣣गार । त꣢म् । अ꣣य꣢म् । सो꣡मः꣢꣯ । आ꣣ह । त꣡व꣢꣯ । अ꣣ह꣢म् । अ꣢स्मि । सख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । न्यो꣢काः । नि । ओ꣣काः ॥१८२७॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निर्जागार तमृचः कामयन्तेऽग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति । अग्निर्जागार तमयꣳ सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥१८२७॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । जागार । तम् । ऋचः । कामयन्ते । अग्निः । जागार । तम् । उ । सामानि । यन्ति । अग्निः । जागार । तम् । अयम् । सोमः । आह । तव । अहम् । अस्मि । सख्ये । स । ख्ये । न्योकाः । नि । ओकाः ॥१८२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1827
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -

(अग्निः जागार) = अग्नि जागता है (तम्) = उसको (ऋचः) = विज्ञान (कामयन्ते) = चाहते हैं । (अग्निः जागार) = अग्नि जागता है (तम् उ) = उसको ही (सामानि) = उपासनाएँ व शान्तियाँ यन्ति प्राप्त होती हैं (अग्निः जागार) = अग्नि जागता है, (तम्) = उसको (अयम्) = यह (सोमः) = सोम [वीर्य व प्रभु] (आह) = कहता है कि (तव) = तेरी (सख्ये) = मित्रता में (अहम्) = मैं (न्योकाः अस्मि) = निश्चित निवासवाला हूँ। एवं, ‘इस मन्त्र में 'यो जागार' = जो जागता है' इस बात का स्पष्टीकरण है कि ' अग्निः जागार' अग्नि ही जागता है । यह अग्नि कौन है ? इसका उत्तर यास्क इन शब्दों में देते हैं

१. (अग्रणीः भवति) = अपने को आगे प्राप्त करानेवाला होता है । यह अपने जीवन में सदा उन्नत होनेवाला होता है । 'आगे और आगे' यही इसके जीवन का लक्ष्य होता है । ऊँचा लक्ष्य हुए बिना जागना सम्भव कहाँ? उच्च लक्ष्यवाला व्यक्ति ही सदा सावधान रहता है। कोई ऊँचा ध्येय न होने पर तो मनुष्य प्रमाद में चला ही जाता है ।


२. (अक्नोपनो भवति) = न क्नोपयति न स्नेहयति-अग्नि वह होता है जो संसार के विषयों से अपना स्नेह नहीं जोड़ता । विषयों से स्नेह जोड़ा और मनुष्य का अग्नित्व समाप्त हुआ | विषय तो विषवृक्ष हैं, इनका फल खाया और मनुष्य मोह की मूर्च्छा में गया।

३. (तपो वा अग्निः) – शत० ३.४.३.२ – अग्नि वह है जो अपने जीवन को तपस्वी बनाता है । आरामपसन्द जीवन मनुष्य को मोहनिद्रा में ले जाता है । यह पतन का मार्ग है। -

४. (अग्निर्वै पाप्मनोऽपहन्ता) = शत० २.३.३.१३ – अग्नि वह है जो पाप का नाश करे । वस्तुतः जब मनुष्य इस लक्ष्य से चलता है कि 'मैंने पाप को अपने समीप नहीं फटकने देना' तभी वह सदा जागरित रहता है।

५. (अयं वा अग्निः ब्रह्म च क्षत्रं च) = शत० ६.२.३.१५ – अग्नि वह है जिसका लक्ष्य ज्ञान प्राप्ति व बल का संचय करना है। इस उच्च लक्ष्य के कारण अग्नि कभी सो थोड़े ही सकता है ? ६. अग्निर्वै ब्रह्मणो वत्सः - जैमिनी० ३.२.२३.१ – अग्नि प्रभु का प्रिय है। प्रभु का प्रिय बनने के लिए वह सदा जागरित रहता है। -

७. (अग्निर्वै स्वर्गस्य लोकस्य अधिपतिः) = जैमिनी० ३.४२ – यह अग्नि स्वर्गलोक का अधिपति बनता है। इसे आराम से लेटने का अवकाश ही कहाँ ?

८. (अग्निर्ह वा अबन्धुः) = जैमिनी० ५.३.६.७ – यह अग्नि अपने को कहीं बँधने नहीं देता, अर्थात् कहीं आसक्त [attached] नहीं होता, अनासक्त [Detached] रूप से आगे और आगे बढ़ता चलता है।

९. (प्रजापतिः अग्निः) = शत० ६.२.१.२३ – अग्नि अनासक्त है, परन्तु प्रजाओं के हित व रक्षण में सदा सक्त है, इस प्रजापति ने क्या सोना ? 'अग्निर्वैधाता' तैत्ति० ३.३.१०.२ । यह अग्नि सबका धारण करता है और इसी उद्देश्य से 'विश्वकर्मायमग्निः' – शत० १.२.२.२ – यह अग्नि सदा कर्मों में व्यापृत रहता है।

कर्मों में व्यापृत रहनेवाला यह अग्नि सदा जागता है और परिणामत: 'विज्ञान, शान्ति व प्रभु' को प्राप्त करता है ।

भावार्थ -

भावार्थ – हम अग्नि बनें, सदा जागरणशील हों । विज्ञान, शान्ति व प्रभु-प्राप्ति के पात्र बनें ।
 

इस भाष्य को एडिट करें
Top