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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 211
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣पां꣡ फेने꣢꣯न꣣ न꣡मु꣢चेः꣣ शि꣡र꣢ इ꣣न्द्रो꣡द꣢वर्तयः । वि꣢श्वा꣣ य꣡दज꣢꣯य꣣ स्पृ꣡धः꣢ ॥२११॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पा꣢म् । फे꣡ने꣢꣯न । न꣡मु꣢꣯चेः । न । मु꣣चेः । शि꣡रः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । उ꣢त् । अ꣣वर्तयः । वि꣡श्वाः꣢꣯ । यत् । अ꣡ज꣢꣯यः । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥२११॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां फेनेन नमुचेः शिर इन्द्रोदवर्तयः । विश्वा यदजय स्पृधः ॥२११॥
स्वर रहित पद पाठ
अपाम् । फेनेन । नमुचेः । न । मुचेः । शिरः । इन्द्र । उत् । अवर्तयः । विश्वाः । यत् । अजयः । स्पृधः ॥२११॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 211
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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विषय - नमुचि-संहार
पदार्थ -
इस मन्त्र के ऋषि ‘काण्वायन' अर्थात् कण्वों की बिरादरी के ‘गोषुक्ति और अश्वसूक्ति' हैं। जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कथन करनेवाली हैं। इसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से उत्तम ही व्यापार चलते हैं। इसने कण-कण करके उत्तमता का साधन किया है। 9
इस गोषुक्ति व अश्वसूक्ति पुरुष से प्रभु कहते हैं कि (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता ऐश्वर्यशाली जीव! तूने (अपाम्) = कर्मों की (फेनेन)= [स्फायी वृद्धौ] वृद्धि के द्वारा (नमुचे:)=अहंकार के (शिरः) = सिर को (उदवर्तयः) = उलट डाला है। (यत्) = जबकि तूने (विश्वा स्पृधः) = अन्दर घुस आनेवाली और हमारा पराभव करने की इच्छावाली सब वृत्तियों को (अजय:) = जीत लिया है।
‘इन्द्र' नाम से जीव का सम्बोधन तभी होता है जब यह इन्द्रियों का विजेता बनकर वास्तविक ऐश्वर्य को पाता है। जब यह कर्मों में लगा रहता है तो वासनाओं का शिकार नहीं होता। सब वासनाओं को जीत लेने पर विजय के अहंकार की वृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जो बड़ों-बड़ों का भी पीछा नहीं छोड़ती, जिसे Last infirmity of the noble कहा जाता है, यह उस ‘न-मुचि' अन्त तक पीछा न छोड़नेवाली अहंकार-वृत्ति के सिर को भी कुचल देता है । सौन्दर्य तो यही है कि सारी “ दैवी सम्पत्ति " होने पर 'नातिमानिता'=गर्व न हो। दैवी सम्पत्ति की यही तो चरम सीमा है। यह अभिमान की वृत्ति तभी कुचली जाती है जब हम निरन्तर कर्मों मे लगे रहें। वस्तुतः कर्मशीलता ही हमें इस वृत्ति से बचाकर विनीत बनाती है।
भावार्थ -
कर्मतन्तु के विस्तार के द्वारा हम विनय को अंकुरित करें।
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