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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 227
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
आ꣢ या꣣ह्यु꣡प꣢ नः सु꣣तं꣡ वाजे꣢꣯भि꣣र्मा꣡ हृ꣢णीयथाः । म꣣हा꣡ꣳ इ꣣व꣢ यु꣡व꣢जानिः ॥२२७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । या꣣हि । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । सुत꣢म् । वा꣡जे꣢꣯भिः । मा । हृ꣣णीयथाः । महा꣢न् । इ꣣व । यु꣡व꣢꣯जानिः । यु꣡व꣢꣯ । जा꣣निः ॥२२७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याह्युप नः सुतं वाजेभिर्मा हृणीयथाः । महाꣳ इव युवजानिः ॥२२७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । याहि । उप । नः । सुतम् । वाजेभिः । मा । हृणीयथाः । महान् । इव । युवजानिः । युव । जानिः ॥२२७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 227
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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विषय - प्रभु इन्द्र से कहते हैं- क्रोध न करना
पदार्थ -
(आयाहि) = इन्द्र से प्रभु कहते हैं कि तू अपने जीवन की साधना के लिए शान्त, एकान्त पर्वतो की कन्दराओं की ओर न जा, अपितु उन कन्दराओं में साधना करके (नः) =हमारे (सुतम्) = उत्पादित इस अशान्ति व अज्ञान से पीड़ित जगत् के (उप)=समीप आ । इन्हें उपदेशामृत से शान्ति का लाभ करा । मनुष्य का आदर्श संसार से भागकर शान्ति - लाभ करना नहीं है, अशान्त संसार में शान्त बने रहना है।
संसार में उपदेशामृत वर्षण के लिए (वाजेभिः) = ज्ञान, शक्ति व त्याग की भावना से भरपूर होकर आना। ज्ञान न होने पर तू औरों को उपदेश ही क्या देगा? शक्ति के अभाव में तू प्रचार-कार्य न कर पाएगा। इन दोनों से बढ़कर त्याग की भावना की आवश्यकता है। इसके बिना संसार में कभी भी कोई लोकहित का कार्य नहीं हुआ।
(मा हृणीयथाः)=क्रोध न करना । लोकहित का कार्य करते हुए तुझे विचित्र अनुभव होंगे। जिनका तू भला कर रहा है वे तुझ पर क्रोध करेंगे, गाली देंगे, परन्तु तुझे उनपर क्रोध नहीं करना।
एक विकृत मनवाला, अपने को स्वामी व बड़ा समझनेवाला युवक अपनी युवति पत्नी पर व्यर्थ में क्रोध करता है, परन्तु (महान्) = एक महान् = ऊँचे घरानेवाला कुलीन, महामना - उदार मनवाला (युवजानि:) = युवति पत्नीवाला (इव)=जैसे कभी क्रोध नहीं करता, इसी प्रकार तुझे भी क्रोध नहीं करना। अनुभवशून्य यह सारा संसार तेरी युवति जाया के ही समान है-उसे सिखाना, उसपर क्रोध न करना । तू पति है- रक्षक है न कि स्वामी । तू Husband=घर को बाँधनेवाला अर्थात् घर के अन्दर टूट-फूट पैदा न होने देनेवाला है, नकि घर को तोड़नेवाला, अतः इस प्रजा पर क्रोध न करना ।
यही मेधातिथि काण्व=समझदार व्यक्ति का मार्ग है। यही व्यक्ति प्रियमेध-ज्ञान के साथ प्रेम करनेवाला है और आङ्गिरस = शक्तिशाली बनता है।
भावार्थ -
हम प्रभु के आदेश के अनुसार परिव्राजक बन लोकहित में प्रवृत्त हों।
टिप्पणी -
नोट- यहाँ भ्रमवश 'अनमेल विवाह' की गन्ध प्रतीत होती है। वह इसलिए कि 'महान्' का अर्थ 'बड़ी उम्रवाला' करने की परिपाटी है, परन्तु महान् का अर्थ – 'उदारमना' उच्च विचारोंवाला व कुलीन, बड़े घरानेवाला करना ही ठीक है। उपमा से प्रभु ने कितना सुन्दर उपदेश दिया है कि कुलीन, उदारमना व्यक्ति अपनी युवा पत्नियों पर क्रोध नहीं किया करते। जब सखा बने तब क्रोध का क्या काम ?