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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 245
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ त्वा꣢ स꣣ह꣢स्र꣣मा꣢ श꣣तं꣢ यु꣣क्ता꣡ रथे꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡ये꣢ । ब्र꣣ह्म꣢युजो꣣ ह꣡र꣢य इन्द्र के꣣शि꣢नो꣣ व꣡ह꣢न्तु꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥२४५॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । सह꣡स्र꣢म् । आ । श꣣त꣢म् । यु꣢क्ताः꣢ । र꣡थे꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡ये꣢ । ब्र꣣ह्मयु꣡जः꣢ । ब्र꣣ह्म । यु꣡जः꣢꣯ । ह꣡र꣢꣯यः । इ꣣न्द्र । केशि꣡नः꣢ । व꣡ह꣢꣯न्तु । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥२४५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये । ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । सहस्रम् । आ । शतम् । युक्ताः । रथे । हिरण्यये । ब्रह्मयुजः । ब्रह्म । युजः । हरयः । इन्द्र । केशिनः । वहन्तु । सोमपीतये । सोम । पीतये ॥२४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 245
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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विषय - ज्योतिर्मय रथ में
पदार्थ -
मेधातिथि पुरुष मेध्यातिथि बनता है। उसकी सभी चित्तवृत्तियाँ कोई भी कार्य करती हुई उस प्रभु का ध्यान करती हैं। उसकी ये चित्तवृत्तियाँ ब्(रह्मयुजः)= उसे ब्रह्म से मिलानेवाली होती हैं। सदा ब्रह्म की ओर लगी होने से ये (केशिनः) = प्रकाशवाली होती हैं। (हिरण्यये रथे)=इस ज्योतिर्मय शरीररूप रथ में (युक्ताः) = युक्त शतं सहस्त्रं सैकड़ों व हजारों अथवा सदा प्रसन्नता से युक्त सैकड़ों चित्तवृत्तियाँ त्(वा) = तुझे (आ) = सर्वथा (सोमपीतये) = शक्ति व ज्ञान के पान के लिए (आवहन्तु) = प्राप्त कराएँ ।
हमारी चित्तवृत्तियाँ जब संसार के विषयों में उलझ जाती हैं तो क्षणिक आनन्दों के बाद विषादमय हो जाती हैं, परन्तु यदि संसार में विचरती हुई ये प्रभु को नहीं भूलती तो ये सदा प्रसादमय बनी रहती हैं। बड़ी से बड़ी सांसारिक विपत्तियों में भी ये अपने हास्य व विकास को नहीं छोड़तीं। इसी से मन्त्र में इन्हें 'सहस्रम्' [स-हस्] -हास्यसहित कहा गया है। प्रभु से दूर न होने के कारण ही ये सदा प्रकाश में रहती हैं- ऐसे व्यक्ति को कभी अपना कर्तव्य-पथ अन्धकारमय प्रतीत नहीं होता। उसका शरीररूप रथ ज्योतिर्मय रहता है। अन्त में ये ही चित्तवृत्तियाँ हमें प्रभु से मिलानेवाली- हमारा प्रभु से सायुज्य करनेवाली होती हैं, अतः ‘ब्रह्मयुजः' कहलाती हैं, क्योंकि ऐसा मनुष्य सदा अपने शरीर की सर्वोत्तम वस्तु सोम को उस महान् सोम = ब्रह्म की प्राप्ति के लिए विनियुक्त करता है और अपनी ज्ञानाग्नि को प्रदीप्त करके यह निरन्तर ज्ञानरूप सोम के पान में आनन्द का अनुभव करता है।
चित्तवृत्तियों को (‘हरयः') शब्द से कहा गया है क्योंकि ये हमें उन-उन विषयों में हर ले-जाती हैं, परन्तु हे (इन्द्र) = इन्द्र! इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तुझे तो ये सोमपान ही कराएँ।
भावार्थ -
हमारी चित्तवृत्तियाँ 'हरयः' के स्थान पर 'ब्रह्मयुज: ' हो जाएँ | विषयों के स्थान में ब्रह्म की ओर जानेवाली हों।