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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 249
ऋषिः - मेधातिथिर्मेध्यातिथिर्वा काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣢न्द्र꣣मि꣢द्दे꣣व꣡ता꣢तय꣣ इ꣡न्द्रं꣢ प्रय꣣꣬त्य꣢꣯ध्व꣣रे꣢ । इ꣡न्द्र꣢ꣳ समी꣣के꣢ व꣣नि꣡नो꣢ हवामह꣣ इ꣢न्द्रं꣣ ध꣡न꣢स्य सा꣣त꣡ये꣢ ॥२४९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । इत् । दे꣣व꣡ता꣢तये । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । प्र꣣यति꣢ । प्र꣣ । यति꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣मीके꣢ । स꣣म् । ईके꣢ । व꣣नि꣡नः꣢ । ह꣣वामहे । इ꣡न्द्र꣢म् । ध꣡न꣢꣯स्य । सा꣣त꣡ये꣢ ॥२४९॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिद्देवतातय इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रꣳ समीके वनिनो हवामह इन्द्रं धनस्य सातये ॥२४९॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । इत् । देवतातये । इन्द्रम् । प्रयति । प्र । यति । अध्वरे । इन्द्रम् । समीके । सम् । ईके । वनिनः । हवामहे । इन्द्रम् । धनस्य । सातये ॥२४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 249
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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विषय - चतुर्दिक्-विजय
पदार्थ -
१. (देवतातये)=देवत्व की वृद्धि के लिए (इन्द्रम् इत्) =उस ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभु को ही (हवामहे) = पुकारते हैं। हमारे जीवनों में सबसे पहला संग्राम प्रकाश [ज्ञान] व अन्धकार का चलता है। ‘हमारे अन्दर [दिव् = to shine ] प्रकाश की वृद्धि हो और उत्तरोत्तर अन्धकार कम और कम होता जाए' इसके लिए हम प्रभु को पुकारते हैं। इस प्रथम युद्ध का क्षेत्र मानव मस्तिष्क है। यहाँ देवत्व की विजय हो । ('विद्वाँसो हि देवा:') = देव विद्वान् हैं। हम विद्वान् बनें । प्रभुकृपा से हमारे मस्तिष्क में ज्योति का प्रादुर्भाव हो।
= २. मानस क्षेत्र में (प्रयति) चल रहे (अध्वरे) = हिंसा की भावना से शून्य यज्ञों के निमित्त इन्(द्रम्) = उस राग-द्वेषादि आसुर भावनाओं को भगा देनेवाले प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु का स्मरण होने पर हमारा मन उसी प्रकार द्वेष का आधार नहीं बनता जैसे मस्तिष्क अन्धकार का। मस्तिष्क में प्रकाश ने अन्धकार पर विजय पायी थी, यहाँ मानस क्षेत्र में प्रेम द्वेष पर विजय पाता है।
= ३. इसके बाद शरीर-क्षेत्र में रोगों व वीर्यशक्ति में चलनेवाले (समीके)=समर में (वनिन:) = प्रशस्त विजय चाहनेवाले हम (इन्द्रम्) = रोगों को दूर करनेवाले शक्तिपुञ्ज प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु के स्मरण से विषय-वृत्ति के भाग जाने पर सुरक्षित वीर्य-शक्ति वस्तुत: सब रोगों को दूर कर देती है। इस क्षेत्र में भी हम विजयी होकर नीरोग बनते हैं।
४. अन्त में (धनस्य सातये) = धन की सम्प्राप्ति के लिए भी (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का ही स्मरण करते हैं। धन के लिए प्रभु को पुकारने की इतनी आवश्यकता न थी, परन्तु यहाँ प्रभु को पुकारने का प्रयोजन यह है कि मनुष्य धन में उलझकर उसे टेढ़े-मेढ़े सभी रास्तों से कमाने लगता है। प्रभु का स्मरण उसे 'सुपथा' = उत्तम मार्ग से ले-चलता है, अतः जो व्यक्ति मेधातिथि = समझदार बनकर मेध्यातिथि प्रभु की ओर निरन्तर चलनेवाला बनता है, वह कभी अन्यान्य मार्ग से धन का संग्रह नहीं करता । एवं, इस धनार्जन के क्षेत्र में भी वह विजयी ही बनता है- पराजित नहीं होता।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हम उल्लिखित चारों संग्रामों में विजयशील बनें।
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