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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 25
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣡ग्ने꣢ यु꣣ङ्क्ष्वा꣡ हि ये तवाश्वा꣢꣯सो देव सा꣣ध꣡वः꣢ । अ꣢रं꣣ व꣡ह꣢न्त्या꣣श꣡वः꣢ ॥२५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । यु꣣ङ्क्ष्वा꣢ । हि । ये । त꣡व꣢꣯ । अ꣡श्वा꣢꣯सः । दे꣣व । साध꣡वः꣢ । अ꣡र꣢꣯म् । व꣡ह꣢꣯न्ति । आ꣣श꣡वः꣢ ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने युङ्क्ष्वा हि ये तवाश्वासो देव साधवः । अरं वहन्त्याशवः ॥२५॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । युङ्क्ष्वा । हि । ये । तव । अश्वासः । देव । साधवः । अरम् । वहन्ति । आशवः ॥२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 25
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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विषय - कैसे घोड़े?
पदार्थ -
हे (अग्ने)=देव! (ये)=जो (तव)=तेरे (साधवः)=यात्रा को सिद्ध करनेवाले (अश्वासः)=घोड़े हैं, उन्हें (हि)=ही (युङ्क्ष्वा)= अपने रथ में जोड़ो, जोकि (आशवः)= शीघ्र मार्ग को व्याप्त करनेवाले (अरम्)=सुन्दरता से [अलं = भूषण तथा पर्याप्त] (वहन्ति)= रथ का खूब वहन करते हैं। ये इन्द्रियरूप घोड़े कैसे होने चाहिएँ, इस बात का यहाँ प्रतिपादन इस प्रकार है कि -
१. साधवः = सिद्ध करनेवाले, निर्माण करनेवाले न कि नाश करनेवाले । हम प्रयत्न करें कि हमारी इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य ठीक रूप से करती हुईं हमारे जीवन का सुन्दर निर्माण करें। ये इन्द्रियाँ भोगों के भोगने में ही न लगी रहें।
२. (अरम्)= सुन्दरता से, खूब। ये इन्द्रियाँ जो भी काम करें कुशलता से करें, उस कार्य में सौन्दर्य हो–अनाड़ीपन न टपके। यही तो योग है- ('योगः कर्मसु कौशलम्'), और ये इन्द्रियाँ अनथक हों, अर्थात् हम कभी अलसा न जाएँ। अन्यथा जीवन-यात्रा कैसे पूर्ण होगी?
३. (आशवः)= [अशु व्याप्तौ] शीघ्रता से मार्ग को व्यापनेवाले। यह जीवन-यात्रा अत्यन्त लम्बी है। प्राणायाम मन्त्र में इसकी सात मंजिलों का सुन्दर वर्णन है, अतः सुस्ती से तो यहाँ काम चल ही नहीं सकता।
अपने इन्द्रियरूप घोड़ों को शक्तिशाली बनाकर ही हम इस मन्त्र के ऋषि 'भरद्वाज' बन पाएँगे।
भावार्थ -
हमारी इन्द्रियाँ कार्यों को सिद्ध करनेवाली हों, अपने कार्य को सुन्दरता से व न थकती हुई करती रहें, तेजस्विता के कारण उनमें मन्दता व शैथिल्य न हो।
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