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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 266
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्र꣢ त्रि꣣धा꣡तु꣢ शर꣣णं꣢ त्रि꣣व꣡रू꣢थꣳ स्व꣣स्त꣡ये꣢ । छ꣣र्दि꣡र्य꣢च्छ म꣣घ꣡व꣢द्भ्यश्च꣣ म꣡ह्यं꣢ च या꣣व꣡या꣢ दि꣣द्यु꣡मे꣢भ्यः ॥२६६॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्रि꣣धा꣡तु꣢ । त्रि꣣ । धा꣡तु꣢꣯ । श꣣रण꣢म् । त्रि꣣व꣡रू꣢थम् । त्रि꣣ । व꣡रू꣢꣯थम् । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । छ꣣र्दिः꣢ । य꣣च्छ । मघ꣡व꣢द्भ्यः । च꣣ । म꣡ह्य꣢꣯म् । च꣣ । याव꣡य꣢ । दि꣣द्यु꣢म् । ए꣣भ्यः ॥२६६॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्र त्रिधातु शरणं त्रिवरूथꣳ स्वस्तये । छर्दिर्यच्छ मघवद्भ्यश्च मह्यं च यावया दिद्युमेभ्यः ॥२६६॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्र । त्रिधातु । त्रि । धातु । शरणम् । त्रिवरूथम् । त्रि । वरूथम् । स्वस्तये । सु । अस्तये । छर्दिः । यच्छ । मघवद्भ्यः । च । मह्यम् । च । यावय । दिद्युम् । एभ्यः ॥२६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 266
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप हमें (त्रिधातु) = उचित मात्रा में होने पर सम्यक् धारण करनेवाले तीन तत्त्वों से युक्त कीजिए, अर्थात् वात, पित्त व कफ के साम्यवाला बनाइए। पित्त व कफ साम्यावस्था में होते हैं, तो यह शरीर नीरोग रहता है। (शरणम्) = स्थूल शरीररूपी घर (यच्छ) = दीजिए। वात,

हे इन्द्र! आप हमें (त्रिवरूथम्) = तीन (वरूथ )= रक्षाएँ [protection] (यच्छ)= प्राप्त कराइए । हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आसुर भावनाओं के आक्रमण से सुरक्षित रहें। सुरक्षित होकर ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति में लगी रहें, कर्मेन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में व्याप्त रहें, मन शिवसंकल्पात्मक बने और बुद्धि विवेकमयी हो, इस प्रकार (स्वस्तये) = ये इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि हमारी उत्तम स्थिति के लिए हों। संक्षेप में स्थूलशरीर स्वस्थ हो तो सूक्ष्मशरीर सुन्दर व शिव हो ।

हे इन्द्र! आप हमें (छर्दिः) = अपनी छत्रछाया- अपना रक्षारूप घर (यच्छ)= प्राप्त कराइए । आपकी छत्रछाया ही हमारे आनन्दमयकोश निवास का साधन है। परन्तु यह छत्रछाया (मघवद्भ्यः च)=[मा- अघ] उन लोगों के लिए है, जिनकी सम्पत्ति पाप के लवलेश से शून्य उपायों से कमायी जाती है और मह्यं च = [मह् पूजायाम्] जो लोकसेवा के द्वारा आपकी पूजा में लगे हैं, उनके लिए ही यह छत्रछाया है।

इस छत्रछाया का स्वरूप क्या है? (एभ्यः) = इन अपने कृपा-पात्रों के लिए आप (दिद्युम्) = देदीप्यमान ज्ञानरूप अस्त्र को (यावय) = संयुक्त कीजिए [यु मिश्रण] प्रभु जिसपर कृपा करते हैं, उसकी बुद्धि को निर्मल करके उसके ज्ञान को दीप्त करते हैं। यह चमकता हुआ ज्ञान ही वह अस्त्र है जिससे काम, क्रोधादि आन्तर शत्रुओं का संहार होता है।
एवं यह प्रभु का कृपा-पात्र स्वस्थ शरीरवाला होकर सबल बनता है और 'भरद्वाज' कहलाता है। इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि के दीप्त होने से यह देदीप्यमान ज्ञानवाला होकर 'बार्हस्पत्य' बनता है। यह ‘भारद्वाज बार्हस्पत्य' ही आदर्श पुरुष है।

भावार्थ -

प्रभो! आपकी कृपा से हम स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व बुद्धिवाले बनकर सदा आपकी छत्रछाया में विचरें।

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