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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 287
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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श꣡ची꣢भिर्नः शचीवसू꣣ दि꣢वा꣣ न꣡क्तं꣢ दिशस्यतम् । मा꣡ वा꣢ꣳ रा꣣ति꣡रुप꣢꣯ दसत्क꣣दा꣢च꣣ना꣢꣫स्मद्रा꣣तिः꣢ क꣣दा꣢च꣣न꣢ ॥२८७॥
स्वर सहित पद पाठश꣡ची꣢꣯भिः । नः꣣ । शचीवसू । शची । वसूइ꣡ति꣢ । दि꣡वा꣢꣯ । न꣡क्त꣢꣯म् । दि꣣शस्यतम् । मा꣢ । वा꣣म् । रातिः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । द꣣सत् । कदा꣢ । च꣣ । न꣣ । अ꣣स्म꣢त् । रा꣣तिः꣢ । क꣣दा꣢ । च꣣ । न꣢ ॥२८७॥
स्वर रहित मन्त्र
शचीभिर्नः शचीवसू दिवा नक्तं दिशस्यतम् । मा वाꣳ रातिरुप दसत्कदाचनास्मद्रातिः कदाचन ॥२८७॥
स्वर रहित पद पाठ
शचीभिः । नः । शचीवसू । शची । वसूइति । दिवा । नक्तम् । दिशस्यतम् । मा । वाम् । रातिः । उप । दसत् । कदा । च । न । अस्मत् । रातिः । कदा । च । न ॥२८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 287
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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विषय - प्रज्ञा, कर्म, दान
पदार्थ -
वैदिक साहित्य में पति-पत्नी 'अश्विनौ' कहलाते हैं। उन्हें प्रभु कहते हैं कि हे (शचीवसू) = [शची=प्रज्ञा, शची-कर्म] प्रज्ञा और कर्मरूप उत्तम सप्तत्तियोंवालों! (नः) = हमें, हमारे प्रति (दिवानक्तम्)=दिनरात (शचीभिः) = ज्ञानों व कर्मों द्वारा (दिशस्यतम्) = [दिश अतिसर्जने] समर्पण करने की इच्छा करो। भक्ति समर्पण का ही नाम है। परन्तु समर्पण किसका? अपने भक्तिभाजन के प्रति समर्पण के लिए उत्तमोत्तम ज्ञानों व कर्मों का संग्रह करो जिससे इनका प्रभु के प्रति समर्पण कर सको। जो गृहस्थ ज्ञान व सत्कर्मों का संचय नहीं करते, उनके जीवनों में प्रभु की उपासना का भी अभाव है।
ज्ञान और कर्म के साथ तीसरी आवश्यक वस्तु 'दान' है। प्रभु कहते हैं कि (वाम्) = तुम दोनों की (राति:) = दान देने की प्रक्रिया (कदाचन्) = कभी भी (उपदसत्) = नष्ट (मा) = न हो। जो मनुष्य देता रहता है वह प्रकृति में आसक्ति व लगाववाला नहीं होता । प्रभु कहते हैं कि (अस्मद् रातिः) = यह हमारा दान तेरे द्वारा चलता हुआ (कदाचन) = कभी (मा उपदसत्) = नष्ट न हो। दान तो प्रभु कर रहे हैं, जीव तो बीच में निमित्तमात्र है।
इस प्रकार ‘प्रज्ञा, कर्म व दान' इस त्रयी को अपनानेवाला व्यक्ति दस महान् देव का सच्चा सेवक दास है, अतः यह 'दैवोदासि' कहलाता है और इसके पर्व-पर्व में अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्ति होती है और यह 'परुच्छेप' नामवाला होता है।
भावार्थ -
प्रज्ञा हमारे मस्तिष्क को उज्ज्वल करे, कर्म हमें शक्तिशाली बनाएँ और दान हमें प्रकृति में अनासक्त बनाकर उस देव का सच्चा दास बनाए ।
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