Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 301
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

यु꣣ङ्क्ष्वा꣡ हि वृ꣢꣯त्रहन्तम꣣ ह꣡री꣢ इन्द्र परा꣣व꣡तः꣢ । अ꣣र्वाचीनो꣡ म꣢घव꣣न्त्सो꣡म꣢पीतय उ꣣ग्र꣢ ऋ꣣ष्वे꣢भि꣣रा꣡ ग꣢हि ॥३०१॥

स्वर सहित पद पाठ

यु꣣ङ्क्ष्व꣢ । हि । वृ꣣त्रहन्तम । वृत्र । हन्तम । ह꣢रीइ꣡ति꣢ । इ꣣न्द्र । पराव꣡तः꣢ । अ꣣र्वाचीनः꣢ । अ꣣र्वा । अचीनः꣢ । म꣣घवन् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । उग्रः꣢ । ऋ꣣ष्वे꣡भिः꣢ । आ । ग꣣हि ॥३०१॥


स्वर रहित मन्त्र

युङ्क्ष्वा हि वृत्रहन्तम हरी इन्द्र परावतः । अर्वाचीनो मघवन्त्सोमपीतय उग्र ऋष्वेभिरा गहि ॥३०१॥


स्वर रहित पद पाठ

युङ्क्ष्व । हि । वृत्रहन्तम । वृत्र । हन्तम । हरीइति । इन्द्र । परावतः । अर्वाचीनः । अर्वा । अचीनः । मघवन् । सोमपीतये । सोम । पीतये । उग्रः । ऋष्वेभिः । आ । गहि ॥३०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 301
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
Acknowledgment

पदार्थ -

प्रभु मेध्यातिथि से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (वृत्रहन्तम्) = वासनारूप विघ्नों को सर्वाधिक नष्ट करनेवाले ! तू (हि) = निश्चय से (हरी युव-इन) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को रथ में जोत्। ये तेरा हरण करते हैं तभी तो हरि हैं। दूर दूर देशों में ये भटकते हैं। उन (परावतः) = दूर दूर देशों से इन्हें वापिस लाकर तू इस शरीररूप रथ में जोतकर अपनी जीवनयात्रा में आगे बढ़नेवाला बन । भोग ही न भोगता रह - अपनी यात्रा प्रारम्भ कर यह यात्रा का आरम्भ कर |

इस प्रकार होगा कि तू (अर्वाचीन:) = अपने अन्दर गति करनेवाला बन। पराचीन नहीं अर्वाचीन। औरों के दोषों को ढूँढ़नेवाला न होकर अपने दोषों को ढूँढनेवाला बन। आत्मनिरीक्षण से ही इस यात्रा का प्रारम्भ होता है। काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु कहाँ-कहाँ छिपे बैठे हैं, उन्हें ढूंढ-ढूँढकर तू समाप्त कर डाल। ‘शत्रु-घ्न' बन । (मघवन्) = पाप के लवलेश से शून्य [मा+अघ] इस सम्बोधन से भी तो यही प्रेरणा विद्यमान है। वासनाओं से उसूपर उठकर तू (सोमपीतये) = सोम के पान के लिए समर्थ होगा, इससे (उग्रः) = ‘उदात्त', तेरा जीवन ऊँचा होगा। तू तेजस्वी भी बनेगा और अब (ऋण्वेभिः) = महान् - उदार आशयों के साथ तू (आगहि) = मेरे समीप आ जा।

प्रभु तो जीव को पुकार- पुकार का अपने समीप बुला रहे हैं, पर जीव सुने तब न? प्रभु की वाणी को सुननेवाला जीव महान् बनता है - उदार बनता है। आत्मप्राप्ति के साथ इस यात्रा का अन्त होता है। आत्मनिरीक्षण से यह प्रारम्भ हुई थी, आत्पप्राप्ति पर आज समाप्त हुई है।
 

भावार्थ -

यात्रा करनेवाला मैं निरन्तर मेध्य प्रभु की ओर चलनेवाला ‘मेध्यतिथि’ बनूँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top