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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 313
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡सा꣢वि दे꣣वं꣡ गोऋ꣢꣯जीक꣣म꣢न्धो꣣꣬ न्य꣢꣯स्मि꣢न्नि꣡न्द्रो꣢ ज꣣नु꣡षे꣢मुवोच । बो꣡धा꣢मसि त्वा हर्यश्व यज्ञै꣣र्बो꣡धा꣢꣯ न꣣ स्तो꣢म꣣म꣡न्ध꣢सो꣣ म꣡दे꣢षु ॥३१३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡सा꣢꣯वि । दे꣣व꣢म् । गो꣡ऋजी꣢꣯कम् । गो । ऋ꣣जीकम् । अ꣡न्धः꣢꣯ । नि । अ꣣स्मिन् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ज꣣नु꣡षा꣢ । ई꣣म् । उवोच । बो꣡धा꣢꣯मसि । त्वा꣣ । हर्यश्व । हरि । अश्व । यज्ञैः꣢ । बो꣡ध꣢꣯ । नः꣣ । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡दे꣢꣯षु ॥३१३॥
स्वर रहित मन्त्र
असावि देवं गोऋजीकमन्धो न्यस्मिन्निन्द्रो जनुषेमुवोच । बोधामसि त्वा हर्यश्व यज्ञैर्बोधा न स्तोममन्धसो मदेषु ॥३१३॥
स्वर रहित पद पाठ
असावि । देवम् । गोऋजीकम् । गो । ऋजीकम् । अन्धः । नि । अस्मिन् । इन्द्रः । जनुषा । ईम् । उवोच । बोधामसि । त्वा । हर्यश्व । हरि । अश्व । यज्ञैः । बोध । नः । स्तोमम् । अन्धसः । मदेषु ॥३१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 313
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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विषय - सात्विक आहार के लाभ
पदार्थ -
(कैसा अन्न–अन्धः) = भोजन वही उत्तम है जो (असावि) = पैदा किया गया है | [सु= पैदा करना [to sow]। भोजन वही ठीक है जो भूमिमाता से पैदा किया जाता है। इस कथन शैली से यह स्पष्ट है कि मांस भोजन हेय है, परन्तु इस प्रकार भावना लेने से तो दूध भी अनुपादेय हो जाएगा, अतः कहते हैं कि (गोऋजीकम्) = गोदुग्धयुक्तम् [ऋजीकम्=mixed up, ऋज् गतौ]। अन्यत्र वेद में ‘पयः पशूनाम्' इन शब्दों से यही भावना व्यक्त की गई है कि पशुओं का दूध ही लेना है, मांस नहीं । एवं पृथिवी से उत्पन्न ब्रीहि, यह, माष, तिल, फल-मूल कन्द व गोदुग्ध ही मानव- भोजन है। यही भोजन सात्त्विक है। (देवम्) = दैवी सम्पत्ति को जन्म देनेवाला है।
(लाभ–अस्मिन्)=इस सात्त्विक भोजन में (ईम्) = निश्चय से जनुषा स्वभाव से ही (इन्द्रः) = इन्द्रियों का शासक न कि इन्द्रियों का दास (नि उवोच) = निश्चय से (समवेत) = सङ्गत होता है [उच समवाये]। अभिप्राय यह कि सात्त्विक भोजन हमें जितेन्द्रिय बनाती है, जबकि राजस भोजन का परिणाम इन्द्रियों का दास बन जाना होता है। ,
प्रभु कहते हैं कि हे (हर्यश्व) = आशुगामी इन्द्रियरूप अश्वोंवाले! (त्वा) = तुझे (यज्ञै:) = यज्ञों के द्वारा (बोधामसि) = ज्ञानयुक्त करते हैं इस वाक्य में वस्तुतः क्रियाशीलता, यज्ञ की वृत्ति तथा ज्ञान ये तीन लाभ सात्त्विक आहार दिये गये हैं। जिस प्रकार एक भक्त 'मेरी माता अपनी आँखो से मेरे पुत्रों को सोने के पात्रों में खाता देखे' इस एक वाक्य से माता की आँखें, सन्तान व धन तीनों ही बात माँग लाता है उसी प्रकार यहाँ भी एक वाक्य में वस्तुतः तीन लाभों का संकेत हो गया है ।
तथा (अन्धसः मदेषु) = इन सात्त्विक भोजनों के आनन्दों में तू (नः स्तोमं बोध) = हमारी स्तुति को भी जान, अर्थात् इन सात्त्विक भोगों को भोगता हुआ भी पुरुष प्रभु को भूल नहीं जाता। उसे सदा प्रभु का स्मरण रहता है।
इस मन्त्र का ऋषि ‘मैत्रावरुणि वसिष्ठ' सात्त्विक भोजन को ही अपनाता है क्योंकि वह समझता है कि मानवता या वीरता वसिष्ठ बनने में ही है। वसिष्ठ वशियों में श्रेष्ठ है। जिसने काम, क्रोध को जीता है। संसारभर को जीतने की अपेक्षा अपने को जीतना अधिक उत्तम है। इस काम-क्रोध को जीतने के लिए ही मित्रावरुण की सन्तान अर्थात् उत्तम प्राणापानवाला बनना आवश्यक है। उसी के लिए प्राणायाम है। इस प्राणायाम में सात्त्विक आहार मूलभूत वस्तु है। इसके बिना प्राणसाधना का सम्भव नहीं। इसीलिए ‘मैत्रावरुणि वसिष्ठ' सात्त्विक भोजन का उपादान करता है।
भावार्थ -
हम सात्त्विक आहार के द्वारा १. जितेन्द्रिय [इन्द्र], २. क्रियाशील, ३. यज्ञशील, ४. ज्ञानी तथा ५. सदा प्रभु का स्तोता बनें।
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