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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 316
ऋषिः - पृथुर्वैन्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
सु꣣ष्वाणा꣡स꣢ इन्द्र स्तु꣣म꣡सि꣢ त्वा सनि꣣ष्य꣡न्त꣢श्चित्तुविनृम्ण꣣ वा꣡ज꣢म् । आ꣡ नो꣢ भर सुवि꣣तं꣡ यस्य꣢꣯ को꣣ना꣢꣫ तना꣣ त्म꣡ना꣢ सह्यामा꣣त्वो꣡ताः꣢ ॥३१६॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣ष्वाणा꣡सः꣢ । इ꣣न्द्र । स्तुम꣡सि꣢ । त्वा꣣ । सनिष्य꣡न्तः꣢ । चि꣣त् । तुविनृम्ण । तुवि । नृम्ण । वा꣡ज꣢꣯म् । आ । नः꣣ । भर । सुवित꣢म् । य꣡स्य꣢꣯ । को꣣ना꣢ । त꣡ना꣢꣯ । त्म꣡ना꣢꣯ । स꣣ह्याम । त्वो꣡ताः꣢꣯ । त्वा । उ꣣ताः ॥३१६॥
स्वर रहित मन्त्र
सुष्वाणास इन्द्र स्तुमसि त्वा सनिष्यन्तश्चित्तुविनृम्ण वाजम् । आ नो भर सुवितं यस्य कोना तना त्मना सह्यामात्वोताः ॥३१६॥
स्वर रहित पद पाठ
सुष्वाणासः । इन्द्र । स्तुमसि । त्वा । सनिष्यन्तः । चित् । तुविनृम्ण । तुवि । नृम्ण । वाजम् । आ । नः । भर । सुवितम् । यस्य । कोना । तना । त्मना । सह्याम । त्वोताः । त्वा । उताः ॥३१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 316
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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विषय - उपासना किस प्रकार ?
पदार्थ -
गत दो मन्त्रों में उपासना के लाभों का सविस्तार वर्णन था। इस मन्त्र में 'उपासना-प्रकार' वर्णित है -
(प्रथम साधना )- हे (इन्द्र! सुष्वाणास) = यज्ञों में सोमरस का अभिषव करते हुए, अर्थात् क्रतु नामक सोमयज्ञों को करते हुए हम (त्वा) = तेरी (स्तुमसि) = स्तुति करते हैं। जीवात्मा को शत-क्रतु कहा गया है, अर्थात् उसके सौ-के- सौ वर्ष क्रतुओं में ही बीतने चाहिएँ । शतक्रतु बनकर वह स्वयं इन्द्र ही बन जाता है। यज्ञों में लगा रहकर वह अपने जीवन को यज्ञमय कर डालता है, वह सचमुच ('पुरुषो वाव यज्ञ:') = यज्ञ बन जाता है।
(द्वितीय साधन-) हे (तुविनम्ण) = बहुत बलवाले, अनन्त शक्तिमान् प्रभो! हम (चित्) = भी (वाजं सनिष्यन्तः) = शक्ति को प्राप्त करते हुए आपकी स्तुति करते हैं। शक्तिपुञ्ज प्रभु की यही सच्ची उपासना है कि हम भी शक्तिशाली बनें। शक्ति में ही सब गुणों का वास होता है। गुणी बन हम प्रभु के पास पहुँच जाते हैं।
(तृतीय साधन) - (न:) = हममें हे प्रभो! आप उस (सुवितम्) [सु + इतम्] = भद्र को, दुरित से विपरीत वस्तु को (आभर) = भरिए । (यस्य कोना) = जिसे आप चाहते हैं। इस भावना से बढ़कर और समर्पण क्या हो सकता है। यह समर्पक प्रभु का सच्चा उपासक है।
(परिणाम-)इस उपासना के होने पर (त्वा + ऊता:) = तुझ से रक्षित हुए हम (तना) = अपनी शक्तियों के विस्तार से (त्मना) = [आत्मना] स्वयं (सह्याम) = शत्रुओं का पराभव करें। उपासना से वह शक्ति प्राप्त होती है जोकि पर्वत तुल्य दृढ़ शत्रुओं को भी नष्ट करने में हमें समर्थ बनाती है। इन शक्तियों के विस्तार के कारण ही यह उपासक 'पृथुः' [प्रथ विस्तारे] कहलाता है। यज्ञों के द्वारा इसने प्रभु की उपासना की, इसलिए यह ‘वैन्य' कहलाया। [वेनः=यज्ञः नि. ३१४]। वेन यज्ञ का नाम है। यज्ञों को खूब करनेवाला वैन्य है।
भावार्थ -
यज्ञों, बल- सम्पादन तथा समर्पण के द्वारा उपासना होती है। इस उपासना से वह शक्ति प्राप्त होती है जोकि हमें शत्रु - विजय के योग्य बनाती है।
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