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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 320
ऋषिः - वेनो भार्गवः देवता - वेनः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ना꣡के꣢ सुप꣣र्ण꣢꣯मुप꣣ य꣡त्पत꣢꣯न्तꣳ हृ꣣दा꣡ वेन꣢꣯न्तो अ꣣भ्य꣡च꣢क्षत त्वा । हि꣡र꣢ण्यपक्षं꣣ व꣡रु꣢णस्य दू꣣तं꣢ य꣣म꣢स्य꣣ यो꣡नौ꣢ शकु꣣नं꣡ भु꣢र꣣ण्यु꣢म् ॥३२०॥

स्वर सहित पद पाठ

ना꣡के꣢꣯ । सु꣣पर्ण꣢म् । सु꣣ । पर्ण꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । यत् । प꣡त꣢꣯न्तम् । हृ꣣दा꣢ । वे꣡न꣢꣯न्तः । अ꣣भ्य꣡च꣢क्षत । अ꣣भि । अ꣡च꣢꣯क्षत । त्वा꣣ । हि꣡र꣢꣯ण्यपक्ष꣣म् । हि꣡र꣢꣯ण्य । प꣣क्षम् । व꣡रु꣢꣯णस्य । दू꣣त꣢म् । य꣣म꣡स्य꣢ । यो꣡नौ꣢꣯ । श꣣कुन꣢म् । भु꣣रण्यु꣢म् ॥३२०॥


स्वर रहित मन्त्र

नाके सुपर्णमुप यत्पतन्तꣳ हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा । हिरण्यपक्षं वरुणस्य दूतं यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥३२०॥


स्वर रहित पद पाठ

नाके । सुपर्णम् । सु । पर्णम् । उप । यत् । पतन्तम् । हृदा । वेनन्तः । अभ्यचक्षत । अभि । अचक्षत । त्वा । हिरण्यपक्षम् । हिरण्य । पक्षम् । वरुणस्य । दूतम् । यमस्य । योनौ । शकुनम् । भुरण्युम् ॥३२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 320
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

(आतिथ्य) = गत मन्त्र की प्रार्थना के अनुसार यदि हम विषय- जाल से मुक्त हो मोक्षलोक में पहुँचेंगे तो वहाँ (नाके)= 'जहाँ दुःख नहीं है' [न+अ+क] ऐसे उस उत्तम मोक्षलोक में तो वे प्रभु (सुपर्णम्) = बड़े उत्तम प्रकार से हमारा पालन करनेवाले हैं ही । परन्तु जब तक हम उस मोक्षलोक में नहीं पहुँचते तब भी (यत्) = वे ब्रह्म (उप पतन्तम्) = उपासक के समीप आते ही हैं। सर्वव्यापक होते हुए भी वे प्रभु अज्ञानियों से 'तदूरे' दूर हैं, ज्ञानियों के ही 'तद्' 'अन्तिके' वे समीप होते हैं। इस समीप आते हुए प्रभु का उपासक को स्वागत [ Reception] करना है। वह उसका स्वागत किस वस्तु से करे? वह भूख-प्यास से परे है, अतः उसका स्वागत तो इसी प्रकार हो सकता है कि (हृदा वेनन्त) = हृदय से तेरी अर्चना करते हुए त्वा अभ्यचक्षत-तेरा दर्शन करें।

इस प्रभु का आतिथ्य इसलिए करना है कि -

१. (हिरण्यपक्षम्)=[हिरण्यं वै ज्योतिः, पक्ष परिग्रहे] वे प्रभु ज्ञान की ज्योति का परिग्रह करानेवाले हैं। प्रभु के आतिथ्य से हमारा मस्तिष्क ज्ञान-ज्योति से जगमगा उठेगा।

२. (वरुणस्य दूतम्) =[यः प्राणः स वरुणः गो० ३-४-११, अपानो वरुणः] वे प्रभु वरुण अर्थात् प्राणापान शक्ति के प्रापक हैं। [ दूतं प्रापयितारं, संदेशहर संदेशा पहुँचाता है] या श्रेष्ठता को प्राप्त करानेवाले हैं। मनों को राग द्वेष, मोह से शून्य करनेवाले हैं।

३.(यमस्य योनौ शकुनम्) = संयम के स्थान में अर्थात् संयमी होने पर शक्ति देनेवाले हैं। प्रभु का स्मरण हमें संयमी बनाता है और परिणामतः हम शक्तिशाली बनते हैं।

४.(भुरण्यम्) = वे प्रभु हमारा भरण करनेवाले हैं। उपासना से केवल आध्यात्मिक लाभ होगा और अभ्युदय से हम वंचित रहेंगे ऐसी बात नहीं है। उपासक का खान-पान प्रभु अवश्य चलाते हैं ।

एवं अभ्युदय वा निःश्रेयस दोनों का हेतु होने से हमें अवश्य उस प्रभु की अर्चना करनी चाहिए। यह अर्चना करनेवाला 'वेन' इस मन्त्र का ऋषि है। अपने को तपस्या अग्नि में तपाने से ही वह ऐसा बन पाया है, अतः यह भार्गव है। वेन का अर्थ यास्क मेधावी भी करता हैं, वस्तुतः प्रभु की अर्चना ही मेधाविता है।
 

भावार्थ -

हम अपने समीप प्राप्त प्रभु का स्वागत करें और उसकी कृपा से ज्ञानी व शक्तिशाली बनें।

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