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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 337
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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यं꣢ वृ꣣त्रे꣡षु꣢ क्षि꣣त꣢य꣣ स्प꣡र्ध꣢माना꣣ यं꣢ यु꣣क्ते꣡षु꣢ तु꣣र꣡य꣢न्तो ह꣡व꣢न्ते । य꣡ꣳ शूर꣢꣯सातौ꣣ य꣢म꣣पा꣡मुप꣢꣯ज्म꣣न्यं꣡ विप्रा꣢꣯सो वा꣣ज꣡य꣢न्ते꣣ स꣡ इन्द्रः꣢꣯ ॥३३७
स्वर सहित पद पाठय꣢म् । वृ꣣त्रे꣡षु꣢ । क्षि꣣त꣡यः꣣ । स्प꣡र्ध꣢꣯मानाः । यम् । यु꣣क्ते꣡षु꣢ । तु꣣र꣡य꣢न्तः । ह꣡व꣢꣯न्ते । यम् । शू꣡र꣢꣯सातौ । शू꣡र꣢꣯ । सा꣣तौ । य꣢म् । अ꣣पा꣢म् । उ꣡प꣢꣯ज्मन् । उ꣡प꣢꣯ । ज्म꣣न् । य꣢म् । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । वाज꣡य꣢न्ते । सः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥३३७॥
स्वर रहित मन्त्र
यं वृत्रेषु क्षितय स्पर्धमाना यं युक्तेषु तुरयन्तो हवन्ते । यꣳ शूरसातौ यमपामुपज्मन्यं विप्रासो वाजयन्ते स इन्द्रः ॥३३७
स्वर रहित पद पाठ
यम् । वृत्रेषु । क्षितयः । स्पर्धमानाः । यम् । युक्तेषु । तुरयन्तः । हवन्ते । यम् । शूरसातौ । शूर । सातौ । यम् । अपाम् । उपज्मन् । उप । ज्मन् । यम् । विप्रासः । वि । प्रासः । वाजयन्ते । सः । इन्द्रः ॥३३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 337
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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विषय - जिसे सभी पुकारते हैं
पदार्थ -
निरुक्त [२-१०-२७] में वृत्र धन का नाम है। वृत्र जो वरा है—धन को कौन नहीं वरता? अध्यापन, याजन व प्रतिग्रह से ब्राह्मण धन को लेने में लगा है, क्षत्रिय तो अधिकारी है ही, वह तो औरों से धन ले ही लेता है। वैश्य का लक्ष्य ही धन है - शूद्र भी एक रुपये के लिए इतना परिश्रम कर रहा है। धन के बिना किसी का काम नहीं चलता, अतः (क्षितयः) = इस पृथिवी पर निवास करनेवाले [क्षि= निवास] सभी मनुष्य- विशेषतः वैश्य (स्पर्धमानाः) = परस्पर स्पर्धा करते हुए, एक दूसरे से अधिक और अधिक धन जुटा पाने की कामना करते हुए (वृत्रेषु) = धनों के निमित्त (वाजयन्तः) = धन चाहते हुए (यम) = जिसे (हवन्ते) = पुकारते हैं (सः) = वह (इन्द्रः) = प्रभु हैं- हम परमैश्वर्यशाली हैं। प्रत्येक वैश्य प्रभु-स्मरण के साथ अपने कार्य को प्रारम्भ करता है और प्रार्थना करता है कि तन्मे (भूयो भवतु माकनीयः) = मेरा व्यापार में लगा धन बढ़ता ही चले।
(युनक्त सीराः) = हलों को जोतो - इस वेदाज्ञा को क्रियान्वित करते हुए कृषक हलों को जोतते हैं और (युक्तेषु) = हलों के जोते जाने पर (तुरयन्त:) = 'तुर - तुर' ध्वनि से बैलों को चलाते हुए (वाजयन्तः) = (अन्न की कामनावाले ये कृषक) यम्-जिसे (हवन्ते) = पुकारते हैं, (सः) = वह (इन्द्र:) = वृष्टि का अधिष्ठातृदेव इन्द्र है। कृषक का तो मन्त्र ही है कि प्रभु बरसेंगे तभी तो अन्न प्राप्त होगा।
(शूरसातौ) = संग्रामों में (यम्) = जिसे (वाजयन्तः) = शक्ति की कामना करते हुए पुकारते हैं (सः) = वह (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु हैं।
अन्त में (विप्रासः) = ब्राह्मण लोग (वाजयन्तः) = त्याग की भावना को अपने में उत्पन्न करना चाहते हुए अपाम कर्मों को (उपज्मन्) = करने के समय यम्-जिसे (हवन्ते) = पुकारते हैं (स:) वह (इन्द्र:) = सब शक्तिशाली कर्मों का अधिष्ठातृदेव परमात्मा हैं। एक ब्राह्मण वस्तुतः यह समझता है कि कर्मों की शक्ति प्रभु की है, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, अतः सब कर्मों को ब्रह्म में आहित करके चलता है। इन्द्रः
क्या वैश्य, क्या कृषक, क्या क्षत्रिय और क्या ब्राह्मण सभी अपने-अपने धन, अन्न, बल व त्याग आदि उपादेय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए प्रभु को ही पुकारते हैं। प्रभु को न भूलनेवाला (‘वामदेव व गौतम') = उत्तम गुणोंवाला व प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बना रहता है।
भावार्थ -
कोई भी कर्म करते हुए हम प्रभु को न भूलें।
टिप्पणी -
सूचना - मन्त्र के 'वाजयन्ते' पद का अर्थ लट् के स्थान में शतृ करके 'वाजयन्तः' रूप में किया है। लोक मे 'वाजयमानाः' - होता है ।