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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 351
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसः शंयुर्बार्हस्पत्यो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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यो꣢ र꣣यिं꣡ वो꣢ र꣣यि꣡न्त꣢मो꣣ यो꣢ द्यु꣣म्नै꣢र्द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः । सो꣡मः꣢ सु꣣तः꣡ स इ꣢꣯न्द्र꣣ ते꣡ऽस्ति꣢ स्वधापते꣣ म꣡दः꣢ ॥३५१॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । र꣣यि꣢म् । वः꣣ । रयि꣡न्त꣢मः । यः । द्यु꣣म्नैः꣢ । द्यु꣣म्न꣡व꣢त्तमः । सो꣡मः꣢꣯ । सु꣣तः꣢ । सः । इ꣣न्द्र । ते । अ꣡स्ति꣢꣯ । स्व꣣धापते । स्वधा । पते । म꣡दः꣢꣯ ॥३५१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रयिं वो रयिन्तमो यो द्युम्नैर्द्युम्नवत्तमः । सोमः सुतः स इन्द्र तेऽस्ति स्वधापते मदः ॥३५१॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । रयिम् । वः । रयिन्तमः । यः । द्युम्नैः । द्युम्नवत्तमः । सोमः । सुतः । सः । इन्द्र । ते । अस्ति । स्वधापते । स्वधा । पते । मदः ॥३५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 351
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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विषय - रय और प्राण
पदार्थ -
सोमः सुतः स इन्द्र तेऽस्ति स्वधापते मदः ॥ १०॥ आत्मनीरीक्षण करनेवाला तिरश्ची यह अनुभव करता है कि सोम की रक्षा होने पर उसका जीवन उल्लासमय होता है और सोम-रक्षा के अभाव में उसे निराशा व उदासी प्रतीत होती है। इस शरीर को व्याधिशून्य व मन को आधिशून्य बनाने का एक ही उपाय है कि हम शरीर की रयि व प्राण दोनों शक्तियों को सुरक्षित करें। तिरश्ची ऋषि कहते हैं कि (वः) = तुम्हारा (यः) = जो (रयिं रयिन्तमः) = रयियों के रयि अर्थात् सर्वोत्तम रयि है और (या) = जो तुम्हारा (द्युम्नै:) = [प्राणो वा आदित्यः] आदित्य के समान ज्योतियों से (द्युमनवत्तमः) = सर्वाधिक चमकता हुआ प्राण है, (सः) = वह वस्तुतः (सुतः सोमः) = उत्पन्न हुआ यह सोम ही है। रयि अपान का वाचक है। स्थूल दृष्टि से अपान दोषों के दूर करने की शक्ति है और प्राण बल का संचार करनेवाली शक्ति है। इन दोनों प्राणापानों का मूल ‘सोम' = वीर्यशक्ति है। प्रभु ने आहार से रस आदि के क्रम द्वारा इसके उत्पादन की व्यवस्था की है। हे इन्द्र- इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव (सः) = वह सोम (ते) = तेरे लिए अर्थात् तेरी उन्नति के लिए (अस्ति) = है।
इस सोम के धारण से तू (स्व) = अपना (धा:) = धारण करनेवाला बनता है। जो भी व्यक्ति इस प्रकार अपना धारण करते हैं वे सब स्वधा हैं। इनमें भी धुरन्धर बननेवाले हे स्(वधापते) = स्वधारकों के मुखिया जीव! (मद:) = तू हर्षयुक्त हो, तेरा जीवन उल्लासमय हो । इस स्वधापति ने सोम रक्षा से अपने जीवन को शक्तिशाली बनाया है, इसीसे यह ‘आङ्गिरस' कहलाया है। अन्तर्मुख यात्रावाला व्यक्ति ‘आङ्गिरस' होना ही चाहिए । बहिर्मुख यात्रा में ही भोग-विलास में फँसकर मनुष्य जीर्ण शक्ति होता है, अन्तर्मुख यात्रा में नहीं।
भावार्थ -
हम स्वधापति बनें और अपने जीवन को उल्लासमय बनाएँ।
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