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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 360
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
प्र꣡प्र꣢ वस्त्रि꣣ष्टु꣢भ꣣मि꣡षं꣢ व꣣न्द꣡द्वी꣢रा꣣ये꣡न्द꣢वे । धि꣣या꣡ वो꣢ मे꣣ध꣡सा꣢तये꣣ पु꣢र꣣न्ध्या꣡ वि꣢वासति ॥३६०॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । वः । त्रिष्टु꣢भ꣢म् । त्रि꣣ । स्तु꣡भ꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । व꣣न्दद्वी꣡रा꣣य । व꣣न्द꣢त् । वी꣣राय । इ꣡न्द꣢꣯वे । धि꣣या꣢ । वः꣣ । मेध꣡सा꣢तये । मे꣣ध꣢ । सा꣣तये । पु꣡र꣢꣯न्ध्या । पु꣡र꣢꣯म् । ध्या꣣ । आ꣢ । वि꣣वासति । ॥३६०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रप्र वस्त्रिष्टुभमिषं वन्दद्वीरायेन्दवे । धिया वो मेधसातये पुरन्ध्या विवासति ॥३६०॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रप्र । प्र । प्र । वः । त्रिष्टुभम् । त्रि । स्तुभम् । इषम् । वन्दद्वीराय । वन्दत् । वीराय । इन्दवे । धिया । वः । मेधसातये । मेध । सातये । पुरन्ध्या । पुरम् । ध्या । आ । विवासति । ॥३६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 360
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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विषय - सबके साथ मिलकर
पदार्थ -
प्रियमेध आङ्गिरस उस प्रभु की (प्र प्र विवासति) = खूब ही स्तुति करता है जोकि (वः) = तुम्हारे (त्रिष्टुभम्) = आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तीनों दुःखों को समाप्त करनेवाला है। अथवा जो प्रभु काम, क्रोध व लोभ तीनों को रोक देता है। यह उस प्रभु की स्तुति करता है जो कि इषम् = निरन्तर प्रेरणा देनेवाला है। वह प्रभु हृदयस्थ होकर सदा सबको सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते ही हैं।
‘प्रियमेध' प्रभु की उपासना इसलिए करता है कि १. (वन्दद्वीराय) = उसे सदा स्तुत्य शक्ति की प्राप्ति हो अर्थात् 'उसे यशस्वी बल प्राप्त हो' प्रभु का उपासक जहाँ प्राकृतिक भोगों में न फँसने से शक्ति लाभ कराता है, वहाँ वह सभी के साथ बन्धुत्व को अनुभव करता हुआ उस बल का रक्षण में विनियोग करता हुआ, स्तुति का पात्र भी होता है। उसका बल स्तुत्य होता है। यह बन्दद्वीर बनता है - अभिवादनीय व स्तुत्य वीर होता है। २. (इन्दवे) = परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए एवम ऐश्वर्य धनधान्य तो प्रकृति के उपासक भी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु ज्ञान व भक्ति आदि का उत्कृष्ट ऐश्वर्य तो प्रभु से ही प्राप्त होता है। ३. (धिया) = बुद्धि के द्वारा (वः) = तुम सबके (मेघसातये) = [मेधृ सङ्गमे] मिलकर सेवन के लिए [साति-संभजन - सेवन] । प्रभु का उपासक एक व्यापक कुटुम्ब की भावना को अपनाने के कारण अकेला खा ही नहीं पाता। उसका सिद्धान्त ('केवलाघो भवति केवलादी') = का होता है। वह अकेला खाने को पाप मानता है। और अन्त में ४. (पुरन्ध्या) = वह पालक व पूरक बुद्धि के लिए प्रभु की उपासना करता है। संसार में विचारशील पुरुष इस तत्त्व को समझ लेता है कि सुखी वही है जिसने ‘(नैराश्यमवलम्बितम्) = निराशा को अपनाया है। वस्तुतः संसार में आशाओं से चलना ही दु:ख का कारण है। निराशा की प्रथमावस्था मनुष्य को सन्मार्ग पर ले चलता है। उसे संसार में फँसने नहीं देती। निराशा की प्रबलता भोगों में फँसा देती है - मनुष्य सदा नशे में रहना चाहता है। इसी निराशा की अत्यन्त प्रबलता Suicide = आत्मघात की ओर ले जाती है। प्रभु का उपासक निराशा की प्रथमावस्था में रहता हुआ सदा पालक बुद्धि को अपनाता है। वह घातपात करके अपने राज्य, सुखों व भोगों को बढ़ाने की चिन्ता नहीं करता।
एवं, यह प्रभु का उपासक सांसारिक भोगों का इच्छुक न हो ('प्रियमेध') = बुद्धि व ज्ञान को प्रिय वस्तु समझनेवाला होता है। अ-विनष्ट-शक्ति होने से 'आंगिरस' तो होता ही है।
भावार्थ -
हम प्रभु के उपासक बनकर स्तुत्य बलवाले, ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले, सबके साथ मिलकर खानेवाले और पालक बुद्धिवाले बनें।