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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 367
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣡य꣢श्चित्ते प꣣तत्रि꣡णो꣢ द्वि꣣पा꣡च्चतु꣢꣯ष्पादर्जुनि । उ꣢षः꣣ प्रा꣡र꣢न्नृ꣣तू꣡ꣳरनु꣢꣯ दि꣣वो꣡ अन्ते꣢꣯भ्य꣣स्प꣡रि꣢ ॥३६७॥
स्वर सहित पद पाठव꣡यः꣢꣯ । चि꣣त् । ते । पतत्रि꣡णः꣢ । द्वि꣣पा꣢त् । द्वि꣣ । पा꣢त् । च꣡तु꣢꣯ष्पात् । च꣡तुः꣢꣯ । पा꣣त् । अर्जुनि । उ꣡षः꣢꣯ । प्र । आ꣣रन् । ऋतू꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣡न्ते꣢꣯भ्यः । परि꣢꣯ ॥३६७॥
स्वर रहित मन्त्र
वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपाच्चतुष्पादर्जुनि । उषः प्रारन्नृतूꣳरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३६७॥
स्वर रहित पद पाठ
वयः । चित् । ते । पतत्रिणः । द्विपात् । द्वि । पात् । चतुष्पात् । चतुः । पात् । अर्जुनि । उषः । प्र । आरन् । ऋतून् । अनु । दिवः । अन्तेभ्यः । परि ॥३६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 367
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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विषय - नियमित जीवन
पदार्थ -
हम द्वेष से ऊपर उठकर शुभवृत्तिवाले बनें। इस शुभवृत्ति के लिए स्वस्थ शरीर की नितान्त आवश्यकता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। इस शरीर के स्वास्थ्य के सबसे अधिक आवश्यक बात नियमित जीवन की है, उसी का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में है। हे उष:=उषाकाल [ उषदाहे ] । सब अन्धकार को जला देनेवाले प्रभात समय! तू (अर्जुनि) = श्वेत है, धवल है। प्रकाश से तू जगमगाती है। (वय:) = [way] अपने नियमित मार्ग पर चलनेवाले (पतत्रिणः) = सदा गतिशील [पत् गतौ] ये (द्विपात् चतुष्पात्) = पशु-पक्षी (चित्) = भी (ते) = तेरा प्रादुर्भाव होने पर (प्रारन्) = प्रकर्षेण गतिमय हो जाते हैं। अपने-अपने घोंसले व गोष्ठों को छोड़कर आजीविका अर्जन के लिए चल देते हैं। ये सदा एक नियमित गति से चलते हैं, प्रकाश में अपना कार्य करते हैं, अन्धकार होने पर सो जाते हैं। इनके सब प्राकृतिक कार्य बड़े नियमित होते हैं। इसी का परिणाम है कि ये स्वस्थ शरीर रहते हैं। हमें भी इनसे शिक्षा लेते हुए इन अपने प्राकृतिक कार्यों को बड़ी नियमित गति से करना है। (ऋतुन् अनु) - ऋतुओं के अनुसार ऋतुभेद से हमारे उठने व सोने क समय में, भोजन पदार्थों में, स्नान आदि की प्रक्रिया में कुछ भेद अवश्य होगा, परन्तु उस भेद में भी नियमित गति तो दीखेगी ही। (दिवो अन्तेभ्यः परि) = हम द्युलोक के परले सिरे पर हों तो भी हमारा यह दैनिकचर्या का क्रम तो ठीक चलना ही चाहिए। कहीं भी हों, हम समय पर कार्य करने के प्रसंग को पूरा करें ही । यह नियमित गति हमें स्वस्थ बनाकर स्वस्थ मनवाला भी बनाएगी । बुद्धिमत्ता इसी मार्ग को अपनाने में है। जो अपनाते हैं वे 'प्रस्कण्व' मेधावी हैं। इस मार्ग पर चलना भी तो मेधा को बढ़ाने का साधन है।
भावार्थ -
मैं अपने शरीर धर्मों में ऋतुओं के अनुसार नियम से चलनेवाला बनूँ।
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