Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 371
ऋषिः - सुवेदाः शैलूषिः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4

श्र꣡त्ते꣢ दधामि प्रथ꣣मा꣡य꣢ म꣣न्य꣢꣫वेऽह꣣न्य꣢꣯द्दस्युं꣣ न꣡र्यं꣢ वि꣣वे꣢र꣣पः꣢ । उ꣣भे꣢꣫ यत्वा꣣ रो꣡द꣢सी꣣ धा꣡व꣢ता꣣म꣢नु꣣ भ्य꣡सा꣢ते꣣ शु꣣ष्मा꣢त्पृथि꣣वी꣡ चि꣢दद्रिवः ॥३७१॥

स्वर सहित पद पाठ

श्र꣢त् । ते꣣ । दधामि । प्रथमा꣡य꣢ । म꣣न्य꣡वे꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । यत् । द꣡स्यु꣢꣯म् । न꣡र्य꣢꣯म् । वि꣣वेः꣢ । अ꣣पः꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । यत् । त्वा꣣ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । धा꣡व꣢꣯ताम् । अ꣡नु꣢꣯ । भ्य꣡सा꣢꣯ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯त् । पृ꣣थिवी꣢ । चि꣣त् । अद्रिवः । अ । द्रिवः ॥३७१॥


स्वर रहित मन्त्र

श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेऽहन्यद्दस्युं नर्यं विवेरपः । उभे यत्वा रोदसी धावतामनु भ्यसाते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः ॥३७१॥


स्वर रहित पद पाठ

श्रत् । ते । दधामि । प्रथमाय । मन्यवे । अहन् । यत् । दस्युम् । नर्यम् । विवेः । अपः । उभेइति । यत् । त्वा । रोदसीइति । धावताम् । अनु । भ्यसाते । शुष्मात् । पृथिवी । चित् । अद्रिवः । अ । द्रिवः ॥३७१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 371
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
Acknowledgment

पदार्थ -

गत मन्त्र में प्रभु को अपनी जीवन-यात्रा का जहाज बनाने का निश्चय 'रेभ काश्यप' ने किया था। यहाँ वही काश्यप 'सुवेदा' नाम से कहा गया है - उत्तम ज्ञानी । यह अपने के 'शैलूषि' ' = वह नर समझता है जो उस संसार - नाटक के सूत्रधार प्रभु के निर्देशानुसार अपना नृत्य करता चलता है। १. प्रभु इससे कहते हैं कि ते तेरे (प्रथमाय मन्यवे) = इस सर्वोत्कृष्ट संकल्प के लिए (श्रुत दधामि) = तुझे आदरणीय समझता हूँ – श्रद्धा के योग्य मानता हूँ। 'प्रभु जो नाच नचाएँगे वही नाचूँगा' यही सर्वोत्तम संकल्प है। प्रभु की नाव में ही बैठूंगा- यही निश्चय प्रशस्य है।

प्रभु कहते हैं कि मैं इसलिए भी तुझे अच्छा समझता हूँ कि २. (यत्) = जो तूने (दस्युम्) = कामक्रोध-लोभ आदि दस्युओं को (अहन्) = नष्ट कर दिया। और फिर ३. (नर्यं अपः) = नर हितसाधक कर्मों को तूने (विवेः)  = विशेषरूप से (सन्तत) = विस्तृत किया । तूने औरों के भले के लिए अपने सुख, समय व सम्पत्ति का त्याग किया और अपने जीवन को एक रूा का रूप दे दिया। इसी का यह परिणाम था (यत् द्वये रोदसी) = कि दोनों द्युलोक व पृथिवीलोक (त्वा अनुधावताम्) = तेरे पीछे दौड़ कर आये। जिस किसी को भी कोई कष्ट हुआ वह तेरे समीप पहुँचा, सारा संसार तेरी ही ओर दौड़ा।

प्रभु कहते हैं कि मुझे तू इसलिए भी अच्छा लगा कि ४. हे (अद्रिवः) = वज्र तुल्य शरीरवाले नर! (ते) = तेरे (शुष्मात्) = बल से (पृथिवीचित्) = सारी पृथिवी भी (भ्यसात्) = काँप उठी। तुझे अपनी रक्षा के लिए रक्षकों की आवश्यकता नहीं हुई। तू इस लोकहित के कार्य में निर्भीक होकर जुटा रह सका। शरीर के नाजुक होने की दशा में जहाँ तू इतना अधिक कार्य न कर सकता, वहाँ तुझे कितने ही कार्यों को करने में भय भी लगता। इसलिए यह भी तूने ठीक ही किया कि अपने शरीर का वज्र तुल्य बनाया।

भावार्थ -

‘मैं उस प्रभु का आदर- पात्र बनूँ अतः १. प्रभु को आधार बनाने का संकल्प करूँ, २. काम-क्रोधादि को कुचल डालूँ, ३. नरहित के कार्यों का विस्तार करूँ और ४. शरीर को वज्र तुल्य बनाऊँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top