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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 375
ऋषिः - कृष्ण आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
अ꣡च्छा꣢ व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ म꣣त꣡यः꣢ स्व꣣र्यु꣡वः꣢ स꣣ध्री꣢ची꣣र्वि꣡श्वा꣢ उश꣣ती꣡र꣢नूषत । प꣡रि꣢ ष्वजन्त꣣ ज꣡न꣢यो꣣ य꣢था꣣ प꣢तिं꣣ म꣢र्यं꣣ न꣢ शु꣣न्ध्युं꣢ म꣣घ꣡वा꣢नमू꣣त꣡ये꣢ ॥३७५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡च्छ꣢꣯ । वः꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । म꣣त꣡यः꣢ । स्व꣣र्यु꣡वः꣢ । स꣣ध्री꣡चीः꣢ । स꣣ । ध्री꣡चीः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । उ꣣शतीः꣢ । अ꣣नूषत । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣जन्त । ज꣡न꣢꣯यः । य꣡था꣢꣯ । प꣡ति꣢꣯म् । म꣡र्य꣢꣯म् । न । शु꣣न्ध्यु꣢म् । म꣣घ꣡वा꣢नम् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥३७५॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा व इन्द्रं मतयः स्वर्युवः सध्रीचीर्विश्वा उशतीरनूषत । परि ष्वजन्त जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये ॥३७५॥
स्वर रहित पद पाठ
अच्छ । वः । इन्द्रम् । मतयः । स्वर्युवः । सध्रीचीः । स । ध्रीचीः । विश्वाः । उशतीः । अनूषत । परि । स्वजन्त । जनयः । यथा । पतिम् । मर्यम् । न । शुन्ध्युम् । मघवानम् । ऊतये ॥३७५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 375
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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विषय - पत्नी जैसे पति के साथ
पदार्थ -
जिसने संसार की वासनाओं से अपने को ऊपर उठा लिया है [कृष्] बाहर निकाल लिया है, वह व्यक्ति कृष्ण है। न उलझने के कारण ही वह ‘आङ्गिरस' है। यह कहता है कि (वः) = तुम सबकी (मतयः) = बुद्धियाँ, इच्छाएँ (इन्द्रं अच्छा) = उस प्रभु की ओर चलनेवाली हों, (स्वर्युवः) = उस स्वयं देदीप्यमान् ज्योति से अत्यन्त [यु+मेल] मेल करनेवाली हों । प्रभु की ओर जाने में ही कल्याण है। प्रक्ति की ओर जाना अन्त में उलझन का कारण बनकर हानि-ही-हानि का कारण बनता है। प्रभु की आने से ऐश्वर्य तो मिलता ही है, क्योंकि प्रभु ‘इन्द्र'=परमैश्वर्यशाली हैं, साथ ही वहाँ ‘स्वर्' - प्रकाश है, अन्धकार नहीं। परमेश्वर की ओर चलनेवाले को अपना कर्तव्यपथ बड़ा स्पष्ट दिखता है। इनकी मतियाँ (सध्रीचीः) = मिलकर चलने की उत्तम भावनावाली होती है [सह अञ्च्]। ये केवल अपनी उन्नति में ही सन्तुष्ट नहीं होते। (विश्वाः उशती:) = सब प्रजाओं के हित को चाहती हुई इनकी मतियाँ वस्तुतः (अनूषत) = उस प्रभु का स्तवन करती हैं। प्रभु का उपासक औरों के साथ मिलकर चलता है और सभी के हित की भावना रखता है। यह किसी का अकल्याण नहीं चाहता।
ये लोग (परिष्वजन्त) = प्रभु का आलिङ्गन उसी प्रकार करते हैं (यथा) = जैसेकि (जनय:) = पत्नियाँ (पतिम्) = पति का आलिङ्गन करती हैं। पति-पत्नि प्रेम से आलिङ्गन कर एक हो जाते हैं, इसी प्रकार जीवरूप पत्नियाँ भी प्रभु का आलिङ्गन कर प्रभु के साथ एक हो जाती हैं। जीवन बाहुल्य के कारण यहाँ 'जनय:' बहुवचनान्त है, प्रभु एक हैं तो ‘पतिम्' एकवचन है। जैसे कि सती नारी स्वपति के अतिरिक्त किसी का चिन्तन नहीं करती, उसी प्रकार जीवन प्रभु के साथ अनन्य प्रेमवाला हो।
दूसरी उपमा यह दी है कि हम अपनी (ऊतये) = रक्षा के लिए प्रभु की ओर उसी प्रकार जाएँ (न) = जैसे लोग (शुन्ध्युम्) = शुद्ध चरित्रवाले (मघवानम्) = ऐश्वर्य सम्पन्न (मर्यम्) = व्यक्ति की ओर जाते हैं। प्रभु पूर्ण शुद्ध है- ऐश्वर्य सम्पन्न हैं, इसीलिए वे अधिक-से-अधिक हमारा हित कर पाते हैं। जो भी व्यक्ति इसी प्रकार शुद्ध व सम्पन्न होता है वही लोकहित करता है। हम अपनी रक्षा के लिए प्रभु की ओर इसी प्रकार जाते हैं, जैसे कि इन लोगों की ओर जाया जाता है।
भावार्थ -
प्रभु के प्रति मेरा अनन्य प्रेम हो। मैं सर्वभावेन उनका भजन करूँ।
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