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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 401
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - मरुतः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
आ꣡ ग꣢न्ता꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत꣣ प्र꣡स्था꣢वानो꣣ मा꣡प꣢ स्थात समन्यवः । दृ꣣ढा꣡ चि꣢द्यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । ग꣣न्ता । मा꣢ । रि꣣षण्यत । प्र꣡स्था꣢꣯वानः । प्र । स्था꣣वानः । मा꣢ । अ꣡प꣢꣯ । स्था꣣त । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा꣢ । चि꣣त् । यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थात समन्यवः । दृढा चिद्यमयिष्णवः ॥४०१॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । गन्ता । मा । रिषण्यत । प्रस्थावानः । प्र । स्थावानः । मा । अप । स्थात । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा । चित् । यमयिष्णवः ॥४०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 401
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - दूर क्यों?
पदार्थ -
क्योंकि प्रभु की उपासना के बिना सभी उत्तम वसु धन नाश का कारण बन जाते हैं, अतः (आगन्त) = आओ, प्रभु की उपासना में सम्मिलित होओ। सखा बनकर सब मिलकर उस प्रभु की स्तुति करो और इस प्रकार (मा) = मत (रिषण्यत) = हिंसित होओ। प्रभु की उपासना करने पर न तो हम भोगों में फँसेंगे, न सौन्दर्य के प्रलोभनों का शिकार होंगे और न ही बुद्धि का दुरुपयोग करेंगे।
(प्रस्थावानः) = हे उत्तम [प्र] स्थिति [स्था] वालों! शम-दमादि उत्तम विचारों में स्थित-साथियों (मा अपस्थात) = दूर स्थित मत होओ, प्रभु की स्तुति में शामिल होओ। (स-मन्यवः) = सदा उत्तम ज्ञानवाले बनो अथवा सदा उत्साह सम्पन्न होओ। (दृढ़ाचित्) = तुम अपने उत्तम संकल्पों में इसी प्रकार दृढ़ बनोगे और (यमयिष्णवः) = अपने को सदा व्रतों व नियमों के बन्धन में बाँधने के स्वभावाले होओगे। एवं प्रभु की उपासना से उत्साह, दृढ़ता व व्रतरुचिता प्राप्त होती है और मनुष्य का जीवन बड़ा सुन्दर व्यतीत होता है । वह आगे और आगे ही बढ़ता है सो प्रभु की उपासना से दूर क्यों होना ?
भावार्थ -
मैं सदा प्रभु की उपासना की रुचिवाला बनूँ जिससे मेरी हिंसा न हो, मेरी शम-दमादि में स्थिति बनी रहे, मैं उत्साहवाला, दृढ़ व संयमी बनूँ।
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